नमस्कार दोस्तों, आज के ब्लॉग में हम आपको बताने जा रहे हैं उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के ba सेकेंड सेमेस्टर का सब्जेक्ट जिसका कोड है BASO(N)102 है , इसका पिछले साल का प्रश्न पत्र SOLVED. इसके अलावा पिछले साल के समाजशास्त्र के प्रश्न पत्र का लिंक भी इसी वेबसाइट में मिलेगा। जहां से आप तीन प्रश्न पत्र को डाउनलोड कर सकते हैं और एक प्रश्न पत्र का हल मिलेगा आपको नीचे आपको डाउनलोड लिंक मिलेगा जहां से आप प्रश्न पत्र डाउनलोड कर सकते हैं।
और अगर आपके पास किताब अवेलेबल नहीं है तो उसका लिंक भी नीचे दिया गया है। यहां से आप डाउनलोड कर सकते हैं।
अब हम हमारे एक प्रश्न पत्र के उत्तर देखते हैं,
प्रश्न 1. परिवार को परिभाषित कीजिए और इसकी विशेषताएँ एवं कार्य बताइए।
उत्तर:
परिवार की परिभाषा:
परिवार समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है, जो खून, विवाह, या गोद लेने के संबंध से जुड़ी होती है। यह एक ऐसा समूह है जिसमें लोग एक साथ रहते हैं और एक-दूसरे की देखभाल करते हैं। परिवार एक सामाजिक संस्था है जहाँ व्यक्तियों का भावनात्मक, शारीरिक, और मानसिक विकास होता है। यह वह स्थान है जहाँ एक व्यक्ति अपने जीवन के शुरुआती वर्षों में सामाजिक और नैतिक मूल्यों को सीखता है।
परिवार की विशेषताएँ:
परिवार की प्रमुख विशेषताओं में सुरक्षा, प्यार, और आपसी सहयोग शामिल हैं। यह एक ऐसी संस्था है जो अपने सदस्यों को सामाजिक, आर्थिक, और भावनात्मक समर्थन प्रदान करती है। परिवार के सदस्य एक-दूसरे के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को समझते हैं और उन्हें निभाते हैं। परिवार एक व्यक्ति के समाजीकरण की प्रक्रिया का केंद्र बिंदु होता है, जहाँ वह अपने सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान को विकसित करता है।
परिवार के कार्य:
परिवार के मुख्य कार्यों में अपने सदस्यों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना, बच्चों का पालन-पोषण और शिक्षा, और सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण और संवर्धन शामिल है। यह अपने सदस्यों को समाज में उनके दायित्वों और अधिकारों के प्रति जागरूक बनाता है। परिवार के माध्यम से व्यक्ति को सुरक्षा, प्रेम, और स्थिरता प्राप्त होती है, जो उसे जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाती है। इस प्रकार, परिवार एक व्यक्ति के जीवन में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और समाज के विकास में भी अहम योगदान देता है।
प्रश्न 2. संस्कार को परिभाषित कीजिए और सामाजिक जीवन में संस्कारों के महत्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संस्कार की परिभाषा:
संस्कार एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से एक व्यक्ति को नैतिक और सांस्कृतिक मूल्य सिखाए जाते हैं। यह एक व्यक्ति के जीवन में अनुशासन, नैतिकता और सामाजिक जिम्मेदारियों को विकसित करने का महत्वपूर्ण साधन है। संस्कार व्यक्ति के चरित्र, आचरण और सामाजिक व्यवहार को आकार देते हैं। यह प्रक्रिया जीवन के विभिन्न चरणों में होती है और व्यक्ति को समाज में एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक बनने में मदद करती है।
सामाजिक जीवन में संस्कारों का महत्व:
सामाजिक जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। ये व्यक्ति को सामाजिक नियमों और परंपराओं का पालन करने के लिए प्रेरित करते हैं। संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति अपने सामाजिक दायित्वों को समझता है और समाज में एक संगठित और संतुलित जीवन जीने के लिए प्रेरित होता है। संस्कार व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखारते हैं और उसे समाज के प्रति जागरूक और संवेदनशील बनाते हैं। इसके अलावा, संस्कारों से सामाजिक एकता, सद्भाव और सामूहिक सहयोग की भावना का विकास होता है, जिससे समाज में शांति और समृद्धि स्थापित होती है। संस्कार व्यक्ति को समाज में मर्यादित, अनुशासित और उत्तरदायी बनाते हैं, जिससे वह समाज में अपनी भूमिका को प्रभावी रूप से निभा सके।
प्रश्न 3. भारतीय संस्कृति ने सदैव "विविधता में एकता" का परिचय दिया है । विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विविधता में एकता का परिचय:
भारतीय संस्कृति की सबसे अनोखी और विशिष्ट विशेषता "विविधता में एकता" है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न धर्म, भाषाएँ, जातियाँ, और परंपराएँ हैं, लेकिन ये सभी मिलकर भारतीय संस्कृति की धरोहर को बनाते हैं। भारतीय समाज में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, और जैन जैसे अनेक धर्मों के अनुयायी हैं, और हर धर्म के अपने-अपने रीति-रिवाज और परंपराएँ हैं। इसके बावजूद, भारत के लोग सदियों से आपस में भाईचारे और सहयोग की भावना के साथ रहते आए हैं।
भारतीय संस्कृति में एकता का महत्व:
भारतीय संस्कृति की विविधता में एकता का महत्व केवल धार्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी देखा जा सकता है। विभिन्न भाषाओं, धर्मों, और संस्कृतियों के बावजूद, भारतीय समाज ने हमेशा एकता की भावना को बनाए रखा है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक, भारतीयों ने अपनी विविधता को अपनी ताकत के रूप में देखा है। यह विविधता ही भारतीय समाज को समृद्ध और मजबूत बनाती है। भारतीय संविधान भी इस एकता का समर्थन करता है और सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार, भारतीय संस्कृति में "विविधता में एकता" का सिद्धांत न केवल हमारी सांस्कृतिक धरोहर को मजबूत बनाता है, बल्कि यह हमें एक राष्ट्र के रूप में भी एकजुट करता है।
प्रश्न 4: वर्ण व्यवस्था क्या है एवं उसकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
परिचय:
वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज की एक प्राचीन सामाजिक संरचना है, जो चार मुख्य वर्णों में विभाजित थी। यह व्यवस्था समाज में कार्यों और दायित्वों के आधार पर लोगों को अलग-अलग समूहों में बांटती थी।
वर्ण व्यवस्था की विशेषताएँ:
1. चार मुख्य वर्ण :-वर्ण व्यवस्था के चार मुख्य वर्ग थे - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र। ब्राह्मणों का कार्य ज्ञान का प्रसार और धार्मिक कर्मकांड करना था, क्षत्रिय समाज की रक्षा और शासन करते थे, वैश्य व्यापार और कृषि करते थे, और शूद्र सेवा कार्यों में लगे रहते थे।
2. कर्म के आधार पर विभाजन :- इस व्यवस्था में किसी व्यक्ति का वर्ण उसके कर्मों और गुणों के आधार पर निर्धारित किया जाता था, न कि जन्म के आधार पर। हालांकि, समय के साथ यह व्यवस्था जन्म आधारित बन गई।
3. सामाजिक अनुशासन :- वर्ण व्यवस्था समाज में अनुशासन और सामाजिक स्थिरता बनाए रखने के लिए बनाई गई थी। प्रत्येक वर्ण के लोगों को अपने-अपने कार्यों का पालन करना अनिवार्य था।
4. धार्मिक और सामाजिक महत्व: वर्ण व्यवस्था का धार्मिक और सामाजिक जीवन में गहरा महत्व था। इसके अनुसार व्यक्ति के धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, और अन्य सामाजिक गतिविधियाँ निर्धारित होती थीं।
निष्कर्ष:
वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संरचना थी, जिसने समाज में कार्य और जिम्मेदारियों के आधार पर विभाजन किया। हालांकि, कालांतर में यह व्यवस्था कठोर और जन्म आधारित हो गई, जिससे समाज में असमानता और भेदभाव की स्थिति उत्पन्न हुई।
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प्रश्न 5: आश्रम व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? इसके समाजशास्त्रीय महत्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
परिचय:
आश्रम व्यवस्था भारतीय समाज की एक अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक संरचना है, जो एक व्यक्ति के जीवन को चार मुख्य चरणों में विभाजित करती है। इस व्यवस्था का उद्देश्य एक संतुलित और सुसंस्कृत जीवन जीना था।
आश्रम व्यवस्था की परिभाषा:
आश्रम व्यवस्था के चार चरण हैं: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास। हर चरण में व्यक्ति के जीवन का एक विशेष उद्देश्य और लक्ष्य होता है।
आश्रम व्यवस्था का समाजशास्त्रीय महत्व:
1. समाज में संतुलन :- आश्रम व्यवस्था समाज में संतुलन और अनुशासन बनाए रखने का एक महत्वपूर्ण साधन थी। यह व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति को जीवन के विभिन्न चरणों में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करती थी।
2. शिक्षा और अनुशासन :- ब्रह्मचर्य आश्रम में व्यक्ति शिक्षा और अनुशासन की ओर ध्यान केंद्रित करता था, जिससे समाज में विद्वानों और अनुशासित नागरिकों का निर्माण होता था।
3. परिवार और समाज की स्थिरता :- गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति परिवार और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता था, जिससे समाज में स्थिरता और सुरक्षा बनी रहती थी।
4. आध्यात्मिक उन्नति :- वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम जीवन के अंतिम चरण में व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरित करते थे, जो समाज के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होते थे।
निष्कर्ष:
आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन के विभिन्न चरणों को संतुलित और सार्थक बनाने का एक साधन थी। इसका समाजशास्त्रीय महत्व इस बात में है कि यह व्यक्ति और समाज दोनों के विकास में सहायक थी।
Section B
प्रश्न 1:- कर्म के सिद्धांत का समाजशास्त्रीय महत्व स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
परिचय:
कर्म का सिद्धांत भारतीय दर्शन का एक प्रमुख अंग है, जो यह दर्शाता है कि हर क्रिया का एक परिणाम होता है। यह सिद्धांत समाज में व्यक्ति के आचरण और नैतिकता को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
समाजशास्त्रीय महत्व:
1. नैतिक आचरण का पालन :- कर्म सिद्धांत व्यक्ति को नैतिक आचरण के लिए प्रेरित करता है। इसके अनुसार, व्यक्ति को अच्छे कर्म करने पर बल दिया जाता है, जिससे समाज में नैतिकता का स्तर बढ़ता है।
2. सामाजिक जिम्मेदारियाँ :- कर्म का सिद्धांत व्यक्ति को उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों का बोध कराता है। समाज में एक व्यक्ति का आचरण और उसके कर्म दूसरों पर भी प्रभाव डालते हैं, इसलिए सही कर्म करना आवश्यक है।
3. समाज में सामंजस्य: कर्म का सिद्धांत समाज में सामंजस्य बनाए रखने में सहायक होता है। जब हर व्यक्ति अपने कर्मों का ध्यान रखता है, तो समाज में शांति और स्थिरता बनी रहती है।
4. पुनर्जन्म और मोक्ष: भारतीय समाज में पुनर्जन्म और मोक्ष का महत्व है। कर्म सिद्धांत के अनुसार, व्यक्ति के कर्म उसके अगले जन्म को निर्धारित करते हैं, और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अच्छे कर्म आवश्यक हैं।
निष्कर्ष:
कर्म का सिद्धांत समाज में नैतिकता, जिम्मेदारी, और सामंजस्य को बढ़ावा देता है। इसके माध्यम से व्यक्ति और समाज दोनों का नैतिक विकास संभव है।
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प्रश्न 2: पुरुषार्थ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
परिचय:
पुरुषार्थ भारतीय जीवन दर्शन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो जीवन के चार मुख्य लक्ष्यों को दर्शाता है। ये लक्ष्य व्यक्ति को एक संतुलित और सफल जीवन जीने की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं।
1. धर्म: धर्म व्यक्ति के नैतिक और सामाजिक कर्तव्यों का पालन है। यह जीवन में सही और गलत का अंतर समझने में मदद करता है और समाज में सद्भाव बनाए रखने में सहायक होता है।
2. अर्थ: अर्थ व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओं और आर्थिक संसाधनों की प्राप्ति है। यह समाज में समृद्धि और विकास के लिए आवश्यक है।
3. काम: काम जीवन के भोग-विलास और इच्छाओं की पूर्ति है। यह व्यक्ति की मानसिक और भावनात्मक संतुष्टि के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे धर्म और अर्थ के साथ संतुलित करना आवश्यक है।
4. मोक्ष :- मोक्ष जीवन का अंतिम लक्ष्य है, जो व्यक्ति को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलाता है। यह आत्मज्ञान और आध्यात्मिक उन्नति का प्रतीक है।
निष्कर्ष:
पुरुषार्थ जीवन के चार महत्वपूर्ण लक्ष्यों का समन्वय है, जो व्यक्ति को एक संतुलित और सफल जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह सिद्धांत समाज में संतुलन, नैतिकता और समृद्धि का आधार है।
प्रश्न 3: धर्म के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
परिचय:
धर्म भारतीय संस्कृति और समाज का एक मूलभूत सिद्धांत है। यह सिद्धांत व्यक्ति के कर्तव्यों, नैतिकता, और सामाजिक आचरण का निर्धारण करता है। धर्म का उद्देश्य जीवन में संतुलन, सदाचार और समाज में शांति बनाए रखना है।
धर्म के सिद्धांत की विशेषताएँ:
1. कर्तव्यों का पालन-: धर्म व्यक्ति के कर्तव्यों का निर्धारण करता है। हर व्यक्ति के लिए उसके सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में धर्म का पालन आवश्यक माना जाता है, चाहे वह परिवार, समाज, या राष्ट्र के प्रति हो।
2. नैतिक आचरण :- धर्म नैतिकता का प्रतीक है। यह सही और गलत के बीच का अंतर समझने और जीवन में नैतिक आचरण को बढ़ावा देने में मदद करता है।
3. सामाजिक संरचना : धर्म समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संतुलन और समरसता को बनाए रखने में सहायक होता है।
4. आध्यात्मिक उन्नति: धर्म व्यक्ति की आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है। यह जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को मजबूत बनाता है और व्यक्ति को ईश्वर के समीप लाने का कार्य करता है।
निष्कर्ष:
धर्म का सिद्धांत व्यक्ति के जीवन में नैतिकता, अनुशासन, और आध्यात्मिकता का समावेश करता है। यह समाज में सद्भाव और शांति बनाए रखने के साथ-साथ व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर प्रेरित करता है।
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प्रश्न 4: नातेदारी व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
परिचय:
नातेदारी व्यवस्था किसी समाज में व्यक्तियों के बीच संबंधों और जिम्मेदारियों का संगठन है। यह परिवार और विस्तारित रिश्तों के आधार पर समाज के संगठन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
नातेदारी व्यवस्था की विशेषताएँ:
1. रिश्तों का आधार: नातेदारी व्यवस्था में व्यक्तियों के बीच संबंध रक्तसंबंध, विवाह, और गोद लेने के आधार पर निर्धारित होते हैं। ये संबंध सामाजिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण होते हैं।
2. सामाजिक जिम्मेदारियाँ : नातेदारी के आधार पर समाज में व्यक्तियों की जिम्मेदारियाँ तय होती हैं। यह परिवार के भीतर और बाहर दोनों के लिए लागू होता है, जैसे माता-पिता की जिम्मेदारी, भाई-बहनों के प्रति दायित्व, आदि।
3. विरासत और संपत्ति: नातेदारी व्यवस्था के अंतर्गत संपत्ति और विरासत का वितरण होता है। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि संपत्ति परिवार के सदस्यों के बीच उचित रूप से बंटे और सामाजिक संबंध मजबूत बने रहें।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना :- नातेदारी व्यवस्था समाज की सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना को बनाए रखने में मदद करती है। यह समाज में व्यक्तियों के बीच सामंजस्य और सहयोग को बढ़ावा देती है।
निष्कर्ष:
नातेदारी व्यवस्था समाज के संगठन और स्थिरता का आधार है। यह व्यक्ति के जीवन में सामाजिक जिम्मेदारियों, संबंधों और सांस्कृतिक संरचना को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
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प्रश्न 5: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में क्या अंतर है?
उत्तर:
परिचय:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति भारतीय संविधान में विशेष रूप से उन सामाजिक समूहों के लिए आरक्षित वर्ग हैं, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक रूप से हाशिए पर रखा गया था।
अनुसूचित जाति:
1. परिभाषा: अनुसूचित जाति में वे जातियाँ शामिल हैं जिन्हें पहले 'अस्पृश्य' या 'अधम' माना जाता था। इन्हें भारतीय समाज के निचले पायदान पर रखा गया था और ये सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक पिछड़ेपन का सामना करती थीं।
2. क्षेत्रीय फैलाव: अनुसूचित जातियाँ पूरे भारत में फैली हुई हैं, लेकिन विशेष रूप से ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में निवास करती हैं।
3. आरक्षण: अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, शिक्षा, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई है ताकि वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें।
अनुसूचित जनजाति:
1. परिभाषा : अनुसूचित जनजाति में वे समूह शामिल हैं जो पारंपरिक रूप से जंगलों में रहते थे और एक अलग सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन शैली अपनाते थे। इन्हें भी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन का सामना करना पड़ा है।
2. क्षेत्रीय फैलाव: अनुसूचित जनजातियाँ विशेष रूप से भारत के पहाड़ी, जंगल, और दूरदराज के क्षेत्रों में निवास करती हैं।
3. आरक्षण: अनुसूचित जनजातियों के लिए भी शिक्षा, नौकरियों और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई है, ताकि वे विकास की मुख्यधारा में शामिल हो सकें।
निष्कर्ष:
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति दोनों ही भारतीय समाज के हाशिए पर रहने वाले समूह हैं। हालांकि, ये दोनों वर्ग भिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक और भौगोलिक पृष्ठभूमि से आते हैं, और उनके लिए अलग-अलग नीतियों और कार्यक्रमों के माध्यम से विकास के अवसर प्रदान किए जाते हैं।
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प्रश्न 6: अनुसूचित जनजाति की समस्याएँ लिखिए।
उत्तर:
परिचय:
अनुसूचित जनजातियाँ भारतीय समाज का वह वर्ग हैं जो पारंपरिक रूप से जंगलों और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करते थे। आज भी, ये जनजातियाँ कई सामाजिक, आर्थिक, और शैक्षिक समस्याओं का सामना कर रही हैं।
अनुसूचित जनजातियों की समस्याएँ:
1. शिक्षा का अभाव :- अनुसूचित जनजातियों में शिक्षा का स्तर बहुत निम्न है। इनके लिए शिक्षा के संसाधनों की कमी और सांस्कृतिक व भाषाई बाधाओं के कारण शिक्षा तक पहुँच सीमित है।
2. स्वास्थ्य सेवाओं की कमी :- इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की भारी कमी है। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, उचित पोषण की कमी और चिकित्सा सेवाओं की दुर्गमता प्रमुख समस्याएँ हैं।
3. आर्थिक पिछड़ापन :- अनुसूचित जनजातियाँ आर्थिक रूप से बहुत पिछड़ी हुई हैं। कृषि और वन्य संसाधनों पर निर्भरता के बावजूद, इनकी आजीविका सुरक्षित नहीं है और इन्हें अक्सर विस्थापन का सामना करना पड़ता है।
4. सांस्कृतिक विलुप्ति :- आधुनिकता और शहरीकरण के प्रभाव से इनकी पारंपरिक संस्कृति, भाषाएँ और रीति-रिवाज विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनके पारंपरिक ज्ञान और जीवनशैली पर भी खतरा मंडरा रहा है।
5. जमीन से बेदखली :- विकास परियोजनाओं के नाम पर इन जनजातियों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है। इससे उनकी आजीविका पर संकट आता है और उन्हें विस्थापन और पुनर्वास की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
निष्कर्ष:
अनुसूचित जनजातियाँ कई सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना कर रही हैं। इनके विकास के लिए विशेष प्रयासों की आवश्यकता है, ताकि ये मुख्यधारा में शामिल हो सकें और इनके पारंपरिक जीवन को संरक्षित किया जा सके।
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प्रश्न 7 : हिन्दू विवाह के प्रमुख प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
परिचय:
हिन्दू विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता है, जिसे धर्म और समाज की महत्वपूर्ण संस्था के रूप में देखा जाता है। हिन्दू धर्म में विवाह के विभिन्न प्रकार प्रचलित हैं, जो समाज की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को दर्शाते हैं।
हिन्दू विवाह के प्रमुख प्रकार:
1. ब्रह्म विवाह :- यह विवाह का सबसे आदर्श प्रकार माना जाता है, जिसमें वर का चयन कन्या के पिता द्वारा उसकी शिक्षा और चरित्र के आधार पर किया जाता है। विवाह बिना किसी दहेज के सम्पन्न होता है।
2. दैव विवाह :- इसमें कन्या का विवाह किसी धार्मिक अनुष्ठान या यज्ञ में ब्राह्मण से किया जाता है। यह विवाह धार्मिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है।
3. आर्ष विवाह :- इस प्रकार के विवाह में वर पक्ष द्वारा कन्या के पिता को कुछ गायें या धन देकर विवाह संपन्न किया जाता है। यह दहेज का आदिम रूप था, जिसे बाद में त्याग दिया गया।
4. गंधर्व विवाह :- यह प्रेम विवाह का प्रकार है, जिसमें वर और कन्या स्वेच्छा से एक-दूसरे को चुनते हैं। यह विवाह समाज में कम स्वीकार्य था, लेकिन इसे शास्त्रों में मान्यता प्राप्त है।
5. आसुर विवाह :- इस प्रकार के विवाह में वर द्वारा कन्या के पिता को धन देकर कन्या को प्राप्त किया जाता है। यह विवाह शास्त्रों में अवैध माना गया है।
6. राक्षस विवाह :- इसमें वर द्वारा युद्ध या बल प्रयोग से कन्या का अपहरण कर विवाह किया जाता है। यह विवाह भी शास्त्रों में अनुचित माना गया है।
7. पैशाच विवाह :- हिंदू धर्म में वर्णित विवाह के आठ प्रकारों में से एक है, जिसे सबसे नीच माना जाता है। इसमें पुरुष महिला को नशीला पदार्थ खिलाकर या जबरन संबंध बनाकर विवाह करता है। यह विवाह पूर्णत: अनुचित और अनैतिक है, और इसे धर्म शास्त्रों में स्वीकार्यता नहीं दी गई है। इस प्रकार का विवाह समाज और नैतिकता के विरुद्ध माना गया है।
प्रश्न 8: नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए
उत्तर:
परिचय:
नगरीय समाज (Urban Society) आधुनिक समाज का वह रूप है जो शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप विकसित हुआ है। नगरीय समाज की विशेषताएँ ग्रामीण समाज से भिन्न होती हैं, और यह विविधता, गतिशीलता, और जटिलता का प्रतीक है।
नगरीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ:
1. उच्च जनसंख्या घनत्व :_ नगरीय समाज में जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। शहरी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में लोग रहते हैं, जिससे संसाधनों पर अधिक दबाव पड़ता है और जनसंख्या का फैलाव होता है।
2. विभाजित श्रम: नगरीय समाज में श्रम का विभाजन स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। विभिन्न उद्योगों, सेवाओं, और व्यवसायों में विशेषज्ञता के कारण कार्य का विभाजन और विविधता बढ़ जाती है।
3. सांस्कृतिक विविधता: नगरीय समाज में विभिन्न जातियों, धर्मों, और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों के लोग साथ रहते हैं। इस सांस्कृतिक विविधता से समाज में अनेकता और सहिष्णुता का वातावरण बनता है।
4. आर्थिक अवसरों की प्रचुरता: शहरी क्षेत्रों में रोजगार के अधिक अवसर होते हैं। व्यापार, उद्योग, और सेवा क्षेत्र के विकास के कारण लोग रोजगार और बेहतर जीवन स्तर की तलाश में शहरों की ओर आकर्षित होते हैं।
5. उच्च गतिशीलता: नगरीय समाज में लोगों की गतिशीलता अधिक होती है। नौकरी, शिक्षा, और अन्य आवश्यकताओं के कारण लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जल्दी और आसानी से जा सकते हैं।
6. व्यक्तिवाद और स्वायत्तता: नगरीय समाज में व्यक्तिवाद का प्रभाव बढ़ जाता है। लोग अपने व्यक्तिगत जीवन और स्वतंत्रता को अधिक महत्व देते हैं, जिससे सामाजिक संबंधों की प्रकृति बदल जाती है।
7. उच्च जीवन स्तर: शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, और मनोरंजन की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध होती हैं, जिससे जीवन स्तर उच्च होता है। हालांकि, इस उच्च जीवन स्तर के साथ-साथ सामाजिक असमानताएँ भी मौजूद रहती हैं।
8. सामाजिक नियंत्रण के नए तरीके: नगरीय समाज में सामाजिक नियंत्रण के पारंपरिक तरीकों की जगह नए और अधिक जटिल तरीके अपनाए जाते हैं। कानून और प्रशासनिक व्यवस्था के माध्यम से समाज को नियंत्रित किया जाता है।
निष्कर्ष:
नगरीय समाज आधुनिकता, विविधता, और गतिशीलता का प्रतीक है। यह समाज सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक दृष्टि से जटिल और विविध होता है। नगरीय समाज की विशेषताओं से यह स्पष्ट होता है कि यह समाज विकास और आधुनिकता की दिशा में निरंतर अग्रसर है, लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक चुनौतियाँ भी उत्पन्न होती हैं जिन्हें समझना और समाधान करना आवश्यक है।
नोट@ दोस्तों आपको इन प्रश्नों के उत्तर कैसे लगे कमेंट में हमें जरूर बताएं और नेक्स्ट आप किस सब्जेक्ट का सॉल्वड पेपर चाहते हैं यह भी बताएं।
धन्यवाद।
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