उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी के बीए प्रथम सेमेस्टर के छात्रों के लिए 2024 का परीक्षा प्रश्नपत्र BAHI(N)101 SOLVED PAPER
नमस्कार दोस्तों,
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प्रश्न 01 : प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर: प्राचीन भारतीय इतिहास से तात्पर्य प्रारंभ से 1200 ई० तक के काल के भारतीय इतिहास से है। इस काल के प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण के लिए जिन तथ्यों और स्रोतों का उपयोग किया जाता है उन्हें प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत कहते हैं।
पुरातात्विक स्त्रोत
पुरातत्व उन भौतिक वस्तुओं का अध्ययन करता है, जिनका निर्माण और उपयोग मनुष्य ने किया है। अतः वे समस्त भौतिक वस्तुएँ जो अतीत में मनुष्य द्वारा निर्मित एवं उपयोग की गयी है, पुरातत्व की परिधि में आती है। वे सभी वस्तुएँ पुरातत्व के अंतर्गत आती है, पुरातात्विक स्त्रोत कहलाती है। विद्वान पुरातात्विक स्त्रोतों को बहुत अधिक प्रामाणिक मानते हैं, क्योंकि पुरातात्विक स्त्रोतों में लेखक कोई गड़बड़ी नहीं कर सकता हैं। पुरातात्विक स्त्रोत सामग्री के अंतर्गत अभिलेख, मुद्राएँ, स्मारक भवन, मूर्तियाँ, तथा पुरातात्विक अवशेषों को रखा जाता है।
अभिलेख
अभिलेख, वह लेख होते है, जो किसी पत्थर (चट्टान), धातु, लकड़ी या हड्डी पर खोदकर लिखें होते हैं। प्राचीन अभिलेख अनेक जैसे, स्तम्भों, शिलाओं, गुहाओं, मूर्तियों, प्रकारों, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पर मिलते हैं। अभिलेखों के अध्ययन को 'पुरालेखशास्त्र' कहा जाता है। कतिपय विद्वान प्राचीन भारतीय इतिहास के स्त्रोतों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक स्त्रोत अभिलेखों को मानते हैं। देश में सर्वाधिक अभिलेख मैसूर (कर्नाटक) में सरंक्षित है। प्रसिद्ध इतिहासकार फ्लीट का मानना है कि, 'प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान अभिलेखों के धैर्यपूर्ण अध्ययन से प्राप्त होता हैं।' अभिलेखों एवं शिलालेखों से संबंधित शासकों के जीवन चरित्र, साम्राज्य - विस्तार, धर्म, शासन प्रबंध, कला तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती हैं। अभिलेखों एवं शिलालेखों से भाषा के विकास की भी जानकारी प्राप्त होती है। मौर्यकाल और ई० पू० तृतीय शताब्दी के अधिकतर अभिलेखों में प्राकृत भाषा का प्रयोग मिलता है, वहीं दूसरी शताब्दी ई० से गुप्त - गुप्तेत्तर काल अधिकतर अभिलेखों में संस्कृत में भाषा का प्रयोग मिलता है। साथ ही, यह बात भी उल्लेखनीय हैं कि, अभिलेखों में नौवीं दशवीं शताब्दी ई० से स्थानीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जाने लगा।
मुद्राएँ
मुद्राएँ जारी करना किसी भी शासक की स्वतंत्र सत्ता का प्रतीक होता था। भारत में सबसे प्राचीन मुद्राएँ 'आहत' मुद्राएँ है, जो लगभग पाँचवीं शताब्दी ई० पू० में प्रचलित थीं। मुद्राओं के अध्ययन को 'न्यूमिस्मेटिक्स' (मुद्राशास्त्र) कहा जाता है। प्राचीन भारत में मुद्राएँ ताँबें, चाँदी, सोने, सीसे, पोटीन, मिट्टी की मिलती है। पुरातात्विक सामग्री में मुद्राओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि 206 ई० पू० - 300 ई० तक का भारतीय इतिहास मुखतः मुद्राओं की सहायता से ही लिख गया है। इसके साथ ही, हिन्द यूनानी शासकों का तो सम्पूर्ण इतिहास मुद्राओं के द्वारा ही लिखा गया है। शक - क्षत्रप, इण्डो - बैक्ट्रियव तथा इण्डो - पर्शियन के इतिहास जानने के एकमात्र साधन सिक्के ही हैं। मुद्राओं के अध्ययन से अनेक प्रकार की - सूचनाएँ मिलती है, जो प्राचीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्त्रोत है।
स्मारक
स्मारक से तात्पर्य, प्राचीन भवन, मृतक स्मृति भवन और क्षत्रिय, धार्मिक भवन आदि आते है। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, नालंदा, रोपड़, हस्तिनापुर, बनावली आदि के स्मारकों से तत्कालीन वास्तुकला नगर नियोजन, सामाजिक स्थिति, धार्मिक स्थिति एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान होता है। स्तूप, चैत्य, विहार, गुफाओं एवं मंदिरों से तत्कालीन धार्मिक एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान होता है। स्मारकों से कला के विकास, काल निर्धारण, कला में प्रयुक्त सामग्री, स्तूप, चैत्य, विहार एवं मंदिरों में चित्रित और अंकित मूर्तियों की वेशभूषा, अलंकरणों एवं अंकनों से तत्कालीन सामाजिक स्थिति, धार्मिक स्थिति एवं साँस्कृतिक स्थिति का ज्ञान तो होता ही है, साथ ही वैचारिक धारणा का भी पता चलता है।
विदेशी स्मारकों से भी भारतीय इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। कम्बोडिया का अंगकोरबाट मंदिर, जावा का बोरोबुदुर मंदिर तथा मलाया व वाली द्वीप से प्राप्त अनेक प्रतिमा, बोर्नियों में मकरान से प्राप्त विष्णु की मूर्ति से ज्ञात होता है कि, वहाँ पर भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रसार था तथा भारतीय धर्म और संस्कृति के बारे में ये महत्वपूर्ण सूचनाएँ देते है।
मुहरें
मुहरें भी प्राचीन भारतीय इतिहास के मुख्य स्त्रोंतों में आती हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता से लगभग 2000 से भी अधिक मुहरें मिली हैं, जिनसे तत्कालीन जलवायु, पशु जगत्, भाषा, धर्म आर्थिक स्थिति का ज्ञान होता है। बसाढ़ (बैशाली) से 274 मुहरों से चौथी शताब्दी ई० में एक व्यापारिक श्रेणी की जानकारी मिलती है। मुहरें तत्कालीन आर्थिक एवं प्रशासनिक कार्य व्यवहार की जानकारी देती है।
मूर्तियाँ
मूर्तियों से धार्मिक अवस्था एवं कला के विकास के बारे में जानकारी मिलती है। भारतीय इतिहास की सर्वप्रथम मूर्ति बेलन घाटी से बनी हड्डी की मातृदेवी की मूर्ति मिली है, जो उच्च पुरापाषाण कालीन (लगभग 35000 ई० पू०) है। सिन्धु घाटी से पत्थर, टैराकोट एवं धातु की मूतियाँ प्राप्त हुई हैं। कुषाण कालीन मूतियों से गांधार कला पर विशेष प्रकाश पड़ता है। गुप्तकालीन मूतियाँ अपने काल की कलात्मकता का बखान करती है। मौर्यकालीन लोक कला की यक्ष - यक्षणियाँ विशेष उल्लेखनीय है। चन्देल शासकों के काल की खजुराहों की मूर्तियां तत्कालीन सामाजिक विचारधारा को प्रकट करती हैं ।यह मूर्तियां कला एवं संस्कृति के विकास की जानकारी देने के साथ ही प्राचीन भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण स्रोत भी हैं।
प्रश्न :02 सिंधु सभ्यता की उत्पत्ति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: सिन्धु सभ्यता के उद्गम के विषय में पुरावशेषों की अपूर्णता और लिपि सम्बन्धित अज्ञानता के कारण किसी निश्चित विचार को ग्रहण करना अभी संभव नहीं है, फिर भी सभ्यता के उद्गम के विषय में कुछ विचारधाराऐं महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं।
प्रथम विचारधारा
एक विचारधारा के अनुसार, सिन्धु संस्कृति और कुल्ली-नाल तथा झोब संस्कृतियों के मध्य निश्चित सम्बन्ध हैं। दक्षिण-मध्य बलूचिस्तान तथा लासबेला में नाल तथा प्रारंभिक कुल्ली संस्कृति के अवशेष प्राप्त होते हैं। झोब संस्कृति, सुलेमान पहाड़ियों के पश्चिम में फली-फूली थीं। ये संस्कृतियां चतुर्थ या तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व में अस्तित्व में थीं। इन संस्कृतियों के मध्य सम्बन्ध बैठाने के लिए कुछ निश्चित प्रमाण दिये
जाते हैं, जैसे- सिन्ध में बाद के काल में कृषि का होना यह दर्शाता है कि बलूचिस्तान और दक्षिणी अफगानिस्तान की कुछ खेतिहर जनजातियां सिन्ध तक प्रवेश कर गयीं थीं। इसके अलावा उत्तर-पूर्वी सिन्ध से
प्राप्त कुछ प्रमाण यह दर्शाते हैं कि प्रारंभिक हड़प्पा सभ्यता की स्थानीय शैली, उत्तरी तथा मध्य बलूचिस्तान से प्राप्त की गयी थी। ये सभी सभ्यताऐं नदियों के किनारे पल्लवित हुयीं थी और सभी कृषि पर आधारित थीं, इसके अलावा इस बात के भी प्रमाण हैं कि प्रारंभिक हड़प्पा बस्तियों ने बलूचिस्तान तथा झोब की संस्कृति के साथ एक लम्बे काल तक स्थिर संबंध रखे थे। दक्षिण-पश्चिम ईरान तथा कुल्ली सभ्यता के मृणभाण्डों तथा अन्य तथ्यों में समानताऐं हैं, इसके अलावा ईरानी तथा कुल्ली दोनों ही प्रकार के साक्ष्य सूरकोटडा से प्राप्त हुए हैं, धातुकार्मिक दक्षता भी कुल्ली-नाल तथा हड़प्पा सभ्यता में समानता रखती हैं। झोब संस्कृति में मातृदेवी तथा लिंग के अवशेष भी प्राप्त होते हैं तथा साथ ही सांड आकृति जोकि सिन्धु सभ्यता में दिखाई देती है, झोब संस्कृति में एक प्रिय विषय या चिह्न के रूप में प्राप्त होती है।
द्वितीय विचारधारा
उद्गम के संबंध में एक दूसरे विचार के अनुसार हड़प्पा सभ्यता को आमरी सभ्यता की प्रच्छाया बताया गया है। इस विचार के अनुसार आमरी में पहले शहरी सभ्यता उत्पन्न हुई और फिर मानव धीरे-धीरे अन्य बस्तियों की खोज करते आगे बढ़ा। इस संदर्भ में पुराविद् कासल ने पूर्व हड़प्पा काल से बाद के हड़प्पा काल तक भौगोलिक स्तरीकरण निश्चित किया हैं। आमरी बस्तियों में मृणभाण्ड बिना चाक की सहायता के हाथ से बने हुए तथा धातु चिह्न अत्यल्प हैं।, किंतु बाद के स्तर में अलंकृत भाण्ड तथा बिना पकी हुयी मिट्टी की ईंटों से बने भवन मिलते हैं, इसके अलावा खुदाई से पता चलता है कि आमरी सभ्यता की कुछ विशिष्ठ परंपराऐं, हड़प्पा सभ्यता की परंपराओं से मेल खाती हैं। उपरोक्त ज्ञान के बावजूद भी हड़प्पा सभ्यता और प्रारंभिक आमरी सभ्यता के बीच संबंध नहीं बैठाया जा सकता है, हांलाकि आमरी के मृणभाण्ड हड़प्पा के नगर प्राचीर के चारों तरफ पाये गये हैं। मोहनजोदड़ो के निचले स्तर में अवश्य बलूचिस्तान की सभ्यता का प्रभाव मिलता है ना कि आमरी सभ्यता का, अतः ताथ्यिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि आमरी सभ्यता से हड़प्पा सभ्यता का विकास नहीं हुआ था।
तृतीय विचारधारा
उद्गम से संबधित एक अन्य विचार के अनुसार, हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त संरचनाओं का संबंध ईसा पूर्व सातवीं सहस्राब्दी में अनातोलिया के कैटल हुयुक तथा बलूचिस्तान के जैरिको और साथ ही सुमेरिया के उदाहरणों के साथ संबंधित किया जा सकता है। अनातोलिया नगर में घुसपैठियों से रक्षा के लिए नगर के चारों ओर सीड़ियों की श्रृंखला सी उठा दी गयी है। इस नगर के लोग मृणभाण्डों का प्रयोग जानते थे तथा प्रस्तर प्रतिमाओं की पूजा करते थे। जेरिको में एक अति विशिष्ठ प्रस्तर प्राचीर से घिरा नगर मिला है। हांलाकि कैटल हुयुक और जैरिको के लोग प्रारंभिक कृषक समुदाय से संबंधित थे फिर भी उन्होंने नागरिक जीवन के कुछ निश्चित अंग विकसित कर लिए थे। सुमेरियाइयों ने मंदिर तथा मिट्टी की ईंटों से बने जिग्गुरात बनाये जो कि कृत्रिम पर्वतों की भांति दिखते थे। इसी प्रकार सिन्धु सभ्यता के स्थलों के भी दो भाग हैं, एक शहर का उठा हुआ भाग तथा दूसरा निचले स्तर में स्थित नगर । लेकिन इन समानताओं के बावजूद भी यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि हड़प्पा सभ्यता किसी निश्चित नगरीय सभ्यता से प्रभावित रही हो।
चतुर्थ विचारधारा
उद्गम से संबधित एक अन्य विचार के अनुसार, सिन्धु सभ्यता सुमेर सभ्यता की ऋणी है। सुमेर सभ्यता और सिन्धु सभ्यता के मध्य निश्चित संबंधों की जानकारी है। गिल्गामेश आकृति, एनकिडु, सांड- मानव, मुद्राओं और मृण्मूर्तियों में गोदीबाड़े के चिह्न, भारतीय तट को मेसोपोटामिया में मैलुह्ह की संज्ञा का मिलना आदि मेल हमें प्राप्त होते हैं। लेकिन हमें मालूम है कि इन संबंधों के बावजूद भी सिन्धु नागरिकों ने सुमेरियाइयों से अपने विकास तथा उत्तरजीविता के संबंध में कुछ विशिष्ठता नहीं प्राप्त की या कुछ खास नहीं सीखा। उदाहरण के लिए हम कह सकते हैं कि सुमेरियाइयों की उत्कृष्ठ सिंचाई व्यवस्था तथा उच्चकोटि की कलाकृतियों को जानने या अपनाने के प्रमाण हमें नहीं मिलते हैं। इन सबसे प्रमुख यह बात है कि सिन्धु लिपि की, पश्चिम एशिया की किसी भी लिपि से संबंधता नहीं मिलती है अर्थात यह सुमेर की लिपि से बिल्कुल भिन्न है। हम केवल यह मान सकते हैं कि पश्चिम एशियाइयों और सिन्धु सभ्यता के मध्य संबंध थे, लेकिन यह संबंध सैन्धव सभ्यता के मूल में नही थे, इसके अतिरिक्त सिन्धु सभ्यता एक स्टैटाइट सभ्यता थी जबकि सुमेर की सभ्यता में स्टैटाइट के कुछ ही दाने मिले हैं।
पंचम विचारधारा
उद्गम से संबधित एक अन्य महत्वपूर्ण विचार के अनुसार, हड़प्पा सभ्यता, सिन्धु घाटी के अंदर चलने वाली एक दीर्घकालीन विकास प्रक्रिया का परिणाम है। सिन्धु सभ्यता के अनेक लक्षणों का मूल हमें वहीं प्राप्त आरंभिक स्तर की ग्रामीण संस्कृतियों मे मिलता है। सिन्धु सभ्यता का निचला स्तर निश्चत रूप से हड़प्पा सभ्यता की प्रस्तावना के रूप में एक लम्बे काल से चलने वाली स्थानीय कृषि और तकनीकी का प्रमाण प्रस्तुत करता है। इस विचार के पीछे अन्य तथ्य भी हैं। उस काल में नगर की समकोणीय संरचना की योजना पश्चिम एशिया की किसी भी स्थान में नहीं मिलती है। पश्चिम एशिया के साथ व्यापार भी यह इंगित करता है कि हड़प्पा सभ्यता में अत्यंत उच्चकोटि का विकसित माल बनता होगा और अवश्य ही विकास के इस स्तर को प्राप्त करने में दीर्घकालीन समय लगा होगा। इसके अलावा हाल की पुरातात्विक खुदाइयां भी बहुत सी पुरा-हड़प्पीय और विकसित - हड़प्पीय बस्तियों के मध्य निरंतरता को बतलाती हैं। इस संदर्भ में चन्हूदाड़ो का उदाहरण दिया जा सकता है, जो मनके बनाने वालों का केन्द्र रहा था, यहां हमैं संस्कृति की निरंतरता प्राप्त होती है। यद्यपि बलूचिस्तान में अनेक स्थलों और कालीबंगन में हड़प्पा-पूर्व बस्तियों के अवशेष मिले हैं तथापि उनमें और हड़प्पा संस्कृतियों के स्थलों में कोई बहुत स्पष्ट संबंध दिखाई नहीं देता यद्यपि संभव है कि हड़प्पा सभ्यता का विकास इन्ही देशज बस्तियों से हुआ हो।
प्रश्न 03 : वैदिक युगीन धार्मिक विचार एवं अनुष्ठानों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
ऋग्वेदिक कालीन धार्मिक विचारधारा
इस धर्म के लौकिक और दार्शनिक पक्ष हैं। ऋग्वेदकालीन आर्य नितान्त प्रवृत्तिमागीं थे। उन्होंने आभी तक गृहत्याग, सन्यास ओर तप की कल्पना नहीं की थी। वे विश्व का अमंगलकारी कष्ट का स्थान नहीं मानते थे। उनमें शरीर से मुक्ति या सांसारिक बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए कोई तीव्र लालसा या उत्सुकता नहीं थी। प्रारम्भिक वैदिक धर्म को एकैकदेववाद कहा गया है, जिसके अनुसार लोग अलग-अलग देवताओं में विश्वास करते थे और जिनमें से प्रत्येक देवता अपनी जगह पर सर्वोच्च था। ऋग्वेदिक आर्यों के लिए विश्व और गृहस्थाश्रम उत्तम स्थान थे। वे गृहस्थाश्रम में ही रहकर देवोपासना और नैतिकता से कल्याण प्राप्ति के लिए प्रयास करते थे।
ऋग्वेद में मनुष्यों के सद्गुणों और नैतिकता पर भी बल दिया गया है, मनुष्य के वर्तमान तथा भविष्य के विषय में कोई संघर्ष नहीं था। धर्म, अर्थ एवं काम के बीच में कोई विरोधाभाष नहीं था, यह कल्पना की जाति थी कि सम्पूर्ण मानव जीवन सुख और समन्वय की इकाई है। प्रारम्भिक एकैकदेववाद के स्थान पर कालान्तर में आर्यों के धार्मिक विचारों में परिवर्तन होता गया। प्रकृति और देवताओं के विषय में आर्यों के मत में परिवर्तन हो गया। आर्यों ने यह समझ लिया था कि सम्पूर्ण ब्रहमाण्ड में एक परम सत्ता है। "सत् एक ही है। विद्वान या ऋषिगण उसे अग्नि, यम और मातरिश्वा आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं।" यह देवादिदेव के अस्तित्व की ओर संकेत करता है। ऋग्वेद की बाद की ऋचाओं में एकेश्वरवाद की भावना और अद्वैतवाद की प्रवृत्ति के निश्चित संकेत और दृष्टान्त प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में कहा गया है कि " आकार और अस्तित्व वाले का सृजन निराकार से हुआ।
अन्ततः हमें सृष्टि का एक संगीत मिलता है, जिसके अनुसार प्रारम्भ में न तो मृत्यु और न अमरता रहती थी और न दिन रात का भेद ही था। केवल वही एक शान्तिपूर्वक रहता था जो अपने ऊपर निर्भर था, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था और इसके ऊपर भी कोई नहीं था।
उत्तर वैदिककालीन धार्मिक विचारधारा
उत्तर वैदिक काल में आर्यों के धार्मिक जीवन में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। प्राचीन देवताओं की द्युति क्रमशः मलिन पड रही थी। पुरोहितों ने धर्म के यज्ञवाले भाग का बहुत ही प्रसार किया, जबकि प्रेतों, पिशाचों, जादू-मन्त्रों और जादू विद्या में सार्वजनिक अन्धविश्वास ने धर्म में स्थान प्राप्त कर लिया। समय के साथ एकेश्वरवादी ओर अद्वैतवादी प्रवृत्तियां, जो कि ऋग्वैदिक काल के अन्त में पनप रही थीं, अब स्पष्ट हो गयी। भौतिक प्राणियों के स्वामी प्रजापति के सामने पहले के सब देवता ज्योतिहीन हो गये। ईश्वर के अवतारवाद की धारणा प्रजापति की कहानियों से स्पष्ट होती है।, जिन्होंने शूकर का रूप धारण कर पृथ्वी को पाताल के जल से ऊपर उठाया और जो सृष्टि निर्माण के समय कच्छप हो गये।
साधारण जनता दुरूह धर्म विद्या या दार्शनिक विवेचना को नहीं समझ सकी और ऋग्वेद में परिचित कुछ देवताओं के प्रति अपना सम्मान दिखाने लगी, किन्तु वे देवता इतने प्रमुख नहीं थे, जितने इन्द्र या वरूण। उनमें एक रूद्र थे, जो पहले की प्रार्थनाओं में शिव की उपाधि रखते थे और शीघ्र ही महादेव और पशुपति समझे जाने लगे। रूद्र के साथ ही दूसरी मूर्ति विष्णु की थी, जो ऋग्वेद में तीन डगों के लिए प्रसिद्ध सूर्य लोग के देवता थे। विश्व सम्बन्धी और धर्मानुरूप व्यवस्था के मूलस्वरूप दुःख से मनुष्य जाति का मुक्त करने वाले और देवताओं के रक्षक के रूप में विष्णु ने शीध्र ही वरूण का स्थान प्राप्त किया और स्वर्गीय देवों में ये सबसे अधिक महिमान्वित हुए । वैदिक धर्म पुस्तकों के अन्तिम काल तक वे वासुदेव समझे जाने लगे और इनहीं धर्म पुस्तकों में भागवत् सम्प्रदाय के बीज प्राप्त होते हैं।
यज्ञ
देवता के लिये मन्त्रपूर्वक द्रव्यत्याग को यज्ञ कहते थे। यज्ञ का प्रारम्भिक स्वरूप सरल था। ऋग्वेद काल में देवता के स्तुतिपरक मन्त्र पढ़े जाते थे और हवि के रूप में विविध धान्य अथवा गोरस से निर्मित अन्न आदि तथा सोमरस अर्पित किये जाते थे। क्रमशः अनेक यज्ञों में ऋत्विक के कार्य का चतुर्धा विभाजन भी होता था। होता नामक ऋत्विक ऋचाओं का पाठ करता था। अध्वर्यु कर्मकाण्ड का भार वहन करता था। उदगाता सामगान करता था तथा ब्रहमा यज्ञ कर्म का अध्यक्ष होता था।
प्रश्न: 04 बौद्ध धर्म के विस्तार को समझाइए।
उत्तर: सर्वविदित है कि मौर्य सम्राट अशोक के शासन काल में उसके पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्री लंका गए थे। यही नही, अशोक के समय में अन्य बौद्ध धर्म के प्रचारक मध्य एशिया तथा दक्षिण-पूर्व-एशिया के देशों में गए थे। धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रवाह ने मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया को = आप्लावित कर लिया और इसके बाद वह यूरोप तक पहुँच गया। बौद्ध धर्म में प्रारम्भ से ही व्यापारियों एवं वणिकों की रूचि थी। ये व्यापारी समुद्र पार करके तथा लम्बी-2 यात्राएं कर सुदूर प्रदेशों में जाया करते थे और उन देशों में जाकर व्यापार के साथ-साथ बौद्ध धर्म का प्रसार भी करते थे। इस प्रकार व्यापारियों एवं धर्म प्रचारकों के द्वारा बौद्ध धर्म का व्यापक प्रसार-प्रचार हुआ। सोपागा तथा सेलेबीज द्वीप समूहों से प्राप्त ई०पू० चौथी शताब्दी की मूर्ति इस बात को प्रमाणित करती है कि उन देशों में इस समय बौद्ध धर्म का प्रसार था और यह भी कहा जाता है कि बोर्नियो द्वीप के नामकरण में बौद्ध यापारियों का ही योगदान रहा है। मलाया में भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। पहली सदी से ही दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में इस धर्म का प्रचार होने लगा था। श्री विजय बौद्ध धर्म का एक प्रधान केन्द्र-स्थल बन गया वहां दूर-दूर से आकर लोग बौद्ध धर्म की शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे। दीपांकर श्रीज्ञान जैसे विद्धान भी वहां शिक्षा प्राप्त करने के लिए गये थे। दक्षिण-पूर्व एशिया की तरह मध्य एशिया के देशों में भी इस धर्म का प्रचार हुआ।
तजाकिस्तान से प्राप्त बुद्ध की विशालकाय मूर्तियाँ तथा बौद्ध धर्म के अवशेष स्पष्ट करते हैं कि कनिष्क के समय बौद्ध धर्म उन क्षेत्रों में फैल चुका था। चीन के कानसू प्रान्त की सीमा पर तुनांग से ऐसे प्रमाण मिले हैं, जो वहाँ पर बौद्ध धर्म के प्रधान केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। वस्तुतः चीन के सांस्कृतिक जीवन में बौद्ध धर्म का अभूतपूर्व योगदान है। यहाँ से कुमारजीव जैसे विद्वान जाकर ज्ञान और दर्शन के प्रसार में संलग्न रहे। चीन में बौद्ध धर्म का प्रसार-प्रचार वहाँ के यात्रियों द्वारा किये गये।
चीन से बौद्ध धर्म कोरिया और जापान गया तथा वहाँ के धार्मिक और सामाजिक जीवन का आधार बन
गया। तिब्बत में बौद्ध का प्रसार तेजी से हुआ और लोग पूर्णतः बौद्ध धर्मानुयायी हो गये। वहाँ के प्रसिद्ध विद्वान लामा तारानाथ है जिसने बौद्ध धर्म एवं दर्शन से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख किया है। अलबरूनी ने लिखा है कि मुसलमान होने से पहले ईरान, ईराक जैसे देशों के निवासी बौद्ध थे। सम्राट अशोक ने ग्रीस, सीरिया आदि पश्चिमी देशों के पीड़ित प्राणियों के लिए औषधियाँ बँटवाकर तथागत के संदेश प्रसारित करवाए थे। इन तथ्यों से स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार विश्व के विभिन्न देशों में हुआ।
प्रश्न 05 : संगम साहित्य पर चर्चा कीजिए।
उत्तर : संगम या संघम शब्द प्राचीन तमिल भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ 'संगोष्ठी परिषद या सभा या संस्थान' से है। प्रथम दृष्टया दक्षिण भारतीय जन जीवन को जानने का मुख्य स्त्रोत संगम साहित्य को ही माना जा सकता है। रामशरण शर्मा जी के मतानुसार, ये संगम तमिल कवियों का संघ या सम्मलेन था जिनका आयोजन संभवतः किसी सामंत या राजा के अधीन किया जाता था।इन कवियों को राजसहायता उपलब्ध थी जिस कारण विशाल संगम साहित्य की रचना हो सकी। इन संगमों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी न होने के कारण यह बता पाना मुश्किल है की इन संगमों की संख्या कितनी थी और इनकी बैठकें कब-कब आयोजित की गई थी। लेकिन ईसा की ८वीं सदी में इरैयनार अगप्पोरुल द्वारा लिखे गए भाष्य की भूमिका से हमें यह ज्ञात होता है कि कुल तीन संगमों का आयोजन किया गया था जो ९,९९० वर्ष तक चले और इनमें ८,५९८ कवियों ने भाग लिया तथा इन्हें कुल १९७ पांड्यराजाओं द्वारा संरक्षण प्रदान किया गया था। सर्वप्रथम इन संगम का आयोजन पांड्य राजाओं द्वारा किया गया, इन राजाओं द्वारा समय समय पर कवियों (बुद्धिजीवियों) को उचित सम्मान के साथ-साथ बृहत् स्तर पर पारितोषिक राशि भी प्रदान की जाती थी। संगम साहित्य में वर्णित साक्ष्यों के आधार पर इस बात की जानकारी मिलती है कि चोल शासक 'करिकाल' ने एक बार एक कवि की रचनाओं से प्रसन्न होकर उसे १६,००,००० स्वर्ण मुद्राएँ प्रदान की थी। हालाँकि यह भी संभव है कि संगम साहित्य की यह इतनी लंबी अवधि दर्शाना संगम साहित्य को प्राचीन दिखने तथा उसे इतिहास में गरिमामय स्थिति प्रदान करने के लिए किया गया हो।
* प्रथम संगमः- इस प्रथम संगम का आयोजन पांड्य राज्य की राजधानी मदुरै में किया गया और इसकी अध्यक्षता आचार्य अगस्त्य ऋषि द्वरा की गई जिन्हें दक्षिण भारत में आर्य-संस्कृति के प्रचार-प्रसार का श्रेय दिया जाता है। इस प्रथम संगम में कुन्नमेरिद, मुरुग्वल, तिरिपुरमेरिथ मुरिन्जयुर आदि जैसे कवियों का अतुलनीय योगदान रहा था। इस दौरान कुल ४,४९९ कवियों की रचनाएँ प्रकाशित की गई थी जिन्हें ८९ पांड्य शासकों ने सरंक्षण प्रदान किया और यह संगम ४४०० वर्ष तक चला था।हालाँकि यह संगम की यह अवधि बढ़ा-चढ़ा कर लिखी गई प्रतीत होती है। वर्तमान समय में इस संगम में लिखे गया कोई भी ग्रन्थ कअब उपलब्ध नहीं है।
* द्वितीय संगमः-पाण्ड्य शासकों द्वारा दूसरे संगम का आयोजन कपाटपुरम या अलवै नामक स्थान पर किया गया और इसकी अध्यक्षता अगस्त्य ऋषि और उनके शिष्य तोल्कपियार द्वारा की गई थी। इस संगम में कुल ४९ सदस्यों द्वारा भाग लिया गया और इसे ५९ पांड्य शासकों द्वारा सरंक्षण प्रदान किया गया था। इस संगम की अवधि भी ३७०० वर्ष वर्णित की गई है जो स्पष्ट तौर पर असंदिग्ध प्रतीत होती है।
इस काल खंड के दौरान कुल ३७,००० कविताओं का प्रकाशन किया गया जिसमें से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं अगत्तियम्, मापुरानम्, कलि, कुरुक आदि।बताया जाता है की प्रथम संगम की ही भांति इस संगम की भी साहित्यिक रचनाएँ विनष्ट हो चुकी हैं।
तृतीय संगमः इस संगम के आयोजन स्थल होने का गौरव भी मदुरै नगर को प्राप्त है और इसकी अध्यक्षता नक्कीरर नामक महाकविद्वारा की गई थी। इस संगम के दौरान ४४९ कवियों ने अपना योगदान दिया और इसकी अवधि १८५० वर्ष बताई जाती है। इस संगम के गौराशाली ग्रन्थों में शामिल हैं- नूत्रैम्बत्थ, वरि, परिपाडल, नेद्रुकथोकै, नत्रिनै, कुत्थ परिसै तथा पदित्रुपत्तु आदि। संगम साहित्य के जो भी ग्रन्थ वर्तमान समय में प्राप्त हैं वे सभी इसी युग से सम्बंधित हैं।
इन सभी रचनाओं का सरंक्षण करने में विद्वान 'यू. वी. स्वामीनाथन अय्यर' का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है, उन्होंने ही सर्वप्रथम प्राचीन पांडुलिपियों का सरंक्षण एवं संग्रहण कर उन्हें प्रकाशित करवाया था।
इस युग की एक अन्य महत्त्वपूर्ण रचना 'तोल्कापियम' है। इसके रचनाकार 'तोल्कपियार', अगस्त्य ऋषि के प्रमुख शिष्य थे और यह कृति, तमिल व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक है। इस पुस्तक में उन्होंने तमिल साहित्य की रचना के लिए नियमों-विनियमों का प्रतिपादन किया है साथ ही इस पुस्तक के कुल तीन भाग हैं- एलुत्ततिकरम (वर्तनी), चोल्लतिकरम (वाक्य सरंचना और उसकी व्युत्पत्ति), पोरुलतिकरम (अकम का तात्पर्य आतंरिक जीवन से और पुरम का अर्थ बाह्य जीवन और पिंगल से है।) हालाँकि इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना कब की गई इस बात को लेकर इतिहासकारों के मध्य एकराय नहीं है। कुछ विद्वानों ने इसका रचनाकाल ईस्वी युग के प्रारंभ के आस-पास माना है और वहीं कुछ अन्य विद्वान इसका रचनाकाल पांचवी शताब्दी का बतलाते हैं।
इन संगमों के बाद ५ प्रमुख तमिल महाकाव्यों की रचना भी की गई इन महाकाव्यों के नाम हैं-"शिल्पादिकरम", "मनिमेकलै", "जीवक चिंतामणि", "वलैयापति", और "कुडलकेशी"। इन महाकाव्यों में से शिल्पादिकरम (नूपुर अर्थात पायल की कहानी) औरमनिमेकलैविशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
इसके अलावा ५ गौण महाकाव्य भी हैं जिनकी रचना जैन लेखकों के द्वारा की गई है ये हैं- "यशोधरा कवियम", "चूलमणि", "पेरूनकथे", "नागकुमार कवियम", और "नीलकेशी"।
Section - B.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
1. हड़प्पा
यह नगर पंजाब प्रांत अब पाकिस्तानके मोण्टगोमरी जिले में रावी नदी के किनारे स्थित है। है। मोहनजोदड़ो की भांति इसका नगर-विन्यास भी समकोणीय संरचना पर आधारित है। गढ़ी एक टीले पर स्थित है जिसके नीचे नगर विस्तृत है। नगर की मुख्य सड़कें 33 फीट तक चौड़ी हैं और एक-दूसरे को समकोण पर काटती हुई नगर को आयताकार खण्डों में विभाजित करती हैं। इस प्रकार की योजना प्रणाली समकालीन मिस्र या मेसोपोटामिया में अज्ञात थीं। नगर में सुनियोजित गलियों की व्यवस्था मिलती है। सड़कों तथा भवनों में पकी ईटों से निर्मित उत्कृष्ट भूमिगत जल निकास व्यवस्था मिलती है। भवनों में कूड़ेदान या कूड़ापात्र तथा स्नानागार भी मिले हैं, स्नानागारों को नालियों की सहायता से सड़कों में बनी मुख्य जल निकास व्यवस्था से जोड़ा गया है। यहां भवन निर्माण में निश्चित माप की ईटों का प्रयोग किया गया है लेकिन पत्थर के भवन का कोई चिह्न नहीं मिलता है। अधिकतर भवनों में दो या अधिक मंजिल मिलती हैं किन्तु सामान्यतः योजना एक सी ही है। हड़प्पा के अन्नागार की कतारें उल्लेखनीय हैं यहां छह-छह अन्नागारों की दो कतारें मिली हैं, और यहां भी मोहनजोदड़ो की भांति समीप ही छोटे कक्ष निर्मित मिलते हैं। गढ़ी के दक्षिण-पश्चिम में स्थित कब्रिस्तान इंगित करता है कि एक विदेशी समूह ने हड़प्पा को नष्ट किया था।
2. पुरापाषाण युग
पुरापाषाण शब्द के लिए अंग्रेजी भाषा में Paleolithic शब्द का प्रयोग किया जाता है जो कि एक यूनानी शब्द है। इसमें पहले शब्द palaios का अर्थ है पुराना और lithos का अर्थ है पत्थर, इस शब्द का प्रयोग प्रागैतिहासिक काल के सन्दर्भ में किया जाता है जब मानव पत्थर से बने औजारों का प्रयोग किया करता था। प्रागैतिहासिक काल से सम्बंधित संस्कृतियों के बारे में सर्वप्रथम जानकारी इसी युग से प्राप्त की जाती है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग वर्ष 1865 में पुरात्तत्ववेत्ता जॉन लुब्बाक द्वारा किया गया था। इनकी पुस्तक का नाम 'प्रीहिस्टारिका टाइम्स' है। पुरापाषाण काल को इतिहासकारों द्वारा तीन भागों में विभाजित किया गया है। यह विभाजन उक्त काल में प्रयोग में लाये जाने वाले उपकरणों तथा जलवायु परिवर्तन के साक्ष्यों पर आधारित है। इसकी तीन अवस्थाएँ निम्नवत हैं-
* निम्न पुरापाषाण काल (600,000 ई.पू. से 150,000 ई.पू. तक)
* मध्य पुरापाषाण काल (150,000 ई.पू. से 35,000 ई.पू.तक)
* ऊपरी पुरापाषाण काल (35,000 ई.पू. से 10,000 ई.पू.तक)
साक्ष्य इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि पुरापाषाण काल का अधिकाँश हिस्सा हिमयुग के अंतर्गत गुजरा है। संभवतः आज से कोई 20 लाख वर्ष पूर्व अफ्रीका में पुरापाषाण काल की शुरुआत हुई होगी, परन्तु भारत के सन्दर्भ में यह युग 6 लाख वर्ष पूर्व से अधिक पुराना नहीं प्रतीत होता। दरअसल इस तिथि का निर्धारण महाराष्ट्र के बोरी नामक स्थान से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर किया गया है जो कि भारत से खोजे सबसे प्राचीन पुरापाषाण कालीन स्थलों में से एक है। इस स्थल से हस्तकुठार (हैंडएक्स), क्लीवर (विदारणी), चौपर (खंडक), स्क्रेपर्स (खुरचनी), आदि उपकरणों के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
3. सिंधु सभ्यता का धर्म
सिन्धु घाटी की खुदाई से जो साक्ष्य मिले हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस सभ्यता में धार्मिक जीवन और विश्वास की एक दीर्घ परंपरा थी। इस धर्म में बाहरी विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ ऐसी विशेषताऐं भी पायी जाती हैं जो आज भी हिन्दू धर्म में मौजूद हैं, इनके अंतर्गत शिव शक्ति पूजा, नाग पूजा, वृक्ष पूजा पाषाण पूजा, लिंग-योनि पूजा तथा योग को सम्मिलित किया जा सकता है।
परमपुरुष की उपासना
सिन्धु घाटी की एक मुद्रा में शिव के पूर्व रूप अर्थात परम पुरूष की आकृति अंकित मिलती है, इस आकृति के तीन मुख है तथा तीन आंखें हैं। चौकी पर विराजमान इस आकृति के दाहिनी ओर हाथी तथा बाघ और बांयी ओर गैंडा एवं भैंसा अंकित हैं, चौकी के नीचे हिरण के समान सींगों वाला पशु अंकित है। राधाकुमुद मुखर्जी ने इसे पशुपति माना है। एक अन्य मुद्रा में नागों से घिरे योगासीन पुरूष की आकृति अंकित मिलती है जबकि एक अन्य मुद्रा में धनुषधारी पुरूष का आखेटक रूप में अंकन किया गया है। सिंन्धु घाटी से अनेक लिंगाकारों की प्राप्ति हुई है अतः कहा जा सकता है कि यहां शिव की लिंग रूप में भी पूजा होती थी। सिन्धु सभ्यता में कुछ इस प्रकार के छल्ले मिले हैं जिन्हें पुराविदों ने योनिपूजा से समीकृत किया है, लिंग पूजा तथा योनि पूजा का घनिष्ठ संबंध है ये दोनों सृष्टिकर्ता के सृजनात्मक रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये सभी प्रतीक एवं संकेत हमें बताते हैं कि उस काल में परमपिता परमेश्वर के पुरूषरूप तथा प्रतीक चिह्नों के रूप में सिन्धु सभ्यता में शिवोपासना प्रचलित थी। मार्शल नामक पुराविद तो सिन्धुघाटी को शैव धर्म की उत्पति का क्षेत्र मानते हुए उसे विश्व का प्राचीनतम धर्म मानता है।
मातृदेवी की पूजा
मोहनजोदड़ो, चन्हूदाड़ो तथा हड़प्पा से प्राप्त मातृदेवी की प्रतिमाओं तथा इन प्रतिमाओं में अंकित विविध आभूषण इत्यादि मातृदेवी के विविध रूपों तथा प्रतीकों के परिचायक हैं। मातृदेवी के इन अंकनों में उसके वनस्पति के रूप में उपास्य, जगत जननी के रूप में पूज्य तथा पशु जगत की अधीश्वरी का आभास मिलता है। विद्वानों की यह धारणा है कि मातृदेवी के ये विविध रूप उसकी विविध शक्तियों के परिचायक हैं। मार्शल नामक पुराविद के अनुसार सिन्धु प्रदेश में मातृदेवी को आद्य शक्ति के रूप में पूजा जाता था।
वृक्ष पूजा
सिन्धु घाटी की मुद्राओं तथा मृणभाण्डों में एसे अनेक वृक्षों का अंकन मिलता है जो विशिष्ट प्रतीत होते हैं और जिन्हें सिन्धु नागरिकों के धार्मिक विश्वास से जोड़ा जा सकता है। यहां से प्राप्त एक मुद्रा में मानव आकृति पीपल की पत्तियां पकड़े हुए प्रदर्शित है, जबकि दूसरी मुद्रा में जुड़वां पशु के सिर पर पीपल की पत्तियों का अंकन मिलता है, कुछ मुद्राओं में देवताओं को वृक्ष की रक्षा करते हुए प्रदर्शित किया गया है। चित्रों में जिन धार्मिक महत्व के वृक्षों को पहचाना गया है उनमें पीपल के अलावा नीम, बबूल, शीशम, खजूर के वृक्ष उल्लेखनीय हैं।
जल पूजा
मोहनजोदड़ो से प्राप्त विशाल स्नानागार तथा अनेक अन्य स्नानागारों की प्राप्ति सिन्धु सभ्यता में जल पूजा पर प्रकाश डालती हैं। कुछ विद्वानों ने तो मोहनजोदड़ो के विशाल स्नानागार को जल देवता का मंदिर भी बताया है। जल पूजा बाद के हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण रही है अतः संभव है कि सिन्धु सभ्यता में जल पूजा की जाती रही हो।
पशु-पक्षी एवं नाग पूजा
हमें मालूम है कि विश्व की सभी सभ्यताओं में पशु-पक्षी पूजा प्रचलित रही है। सिन्धु घाटी के कुछ पशु-पक्षी भी विशिष्ठ प्रतीत होते हैं, इनमें बैल और विशेषकर कूबड़वाला बैल प्रमुख है जो बाद के काल में शिव के वाहन के रूप में आराध्य रहा है। इसके अतिरिक्त बत्तख भी सिन्धु नागरिको की आस्था का केन्द्र प्रतीत होती है। एक मुद्रा में नाग की पूजा करते हुए व्यक्ति का अंकन मिला है। अतः इनत थ्यों के आधार पर सिन्धु घाटी में पशु-पक्षी एवं नाग पूजा की कल्पना भी की जाकती है।
4. महायान
महायान परम्परा पहली शताब्दी ई०पू० और दूसरी शताब्दी ई0 के बीच। विकसित हुई। महायान दर्शन बुद्ध के मौलिक दर्शन परआधारित है परन्तु परम्परागत व्याख्याओं में उसकी आस्था नहीं है। इसमें नए सिद्धांतऔर प्रथाओं को जोड़ने का प्रयत्न किया गया ताकि बौद्ध धर्म के आम अनुयायी भी इसे आसानी सेसमझ सकें। उन्होंने निर्वाण के बाद बुद्ध को भगवान बना दिया ताकि बुद्ध केअस्तित्व से सम्बन्धित सभी प्रश्नों और संदेहों का निराकरण किया जा सके। महायान दर्शन के अनुसार कोई भी पवित्र प्राणी बुद्ध बन सकता है। लेकिन यदि अपने कार्य और मानसिक स्थिति को विकसित नहीं कर सकता है तो उसे ज्ञानोदयकी प्राप्ति नहीं होगी। इसमें बोधिसत्व के आदर्श को प्रोत्साहत किया गया है। जो लोग दुनिया की सेवा करने के लिए जन्म और मृत्यु के इसकष्टप्रद चक्र में अपनी इच्छा से बने रहना चाहते हैं उनके लिए निर्वाण प्राप्तकरना जरूरी नहीं है। इस परम्परा के अनुयायियों का यह मानना है कि कुछ शाश्वत सत्ता है जिसकी पूजा की जा सकती है। इस प्रकार यह धर्म बहुदेववादी हो गया। इसे महायान के रूप में जाना गया क्योंकि इसमें बोधिसत्व के आदर्श से युक्त मुक्ति का दृष्टिकोण और सभी प्राणियों को मुक्त करने की आकांक्षा शामिल है। करूणा और सुबुद्धि को ज्ञानोदय का मार्ग माना गया। बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए बोधिसत्व की प्रार्थना और उपासना को मूल मंत्र माना गया।
5.सातवाहनकालीन भौतिक संस्कृति
सातवाहनकालीन अर्थव्यवस्था में उत्तर भारत के तत्व एवं क्षेत्रीय तत्व दोनों के बीच सामंजस्य देखा जा सकता है। दक्कन क्षेत्र में लौह उपकरणों का प्रयोग महापाषाण काल में आरंभ हो चुका था तथा कृषि में भी इन उपकरणों का प्रयोग होने लगा था।। यद्यपि ये उपकरण बेहतर किस्म के नहीं थे तथा कृषि भी पूरी तरह विकसित नहीं हुई थी किन्तु आगे मौर्य साम्राज्य से संपर्क के परिणाणस्वरूप इस क्षेत्र में भौतिक संस्कृति को प्रोत्साहन मिला | उदाहरण के लिए, मौयों से संपर्क के पश्चात् इस क्षेत्र में बेहतर किस्म के लौह उपकरणों का प्रयोग, धान के बेहतर किस्म, पक्की ईटे व घेरेदार कुएं आदि का प्रचलन आरंभ हो गया। इसके अतिरिक्त हँसिये, कुदालें, हल के फाल, कुल्हाड़ियाँ, बसूले व उस्तरे आदि सातवाहन कालीन उत्खनित स्थलों में पाए गए हैं। चूलदार और मूठ वाले वाणाग्र और कटारें भी मिली हैं। करीमनगर जिले में एक उत्खनित स्थान पर लोहार की एक दुकान भी मिली है। सातवाहनों ने करीमनगर और वारंगल के लौह अयस्कों का उपयोग किया होगा, इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि इन दोनों जिलों से महापाषाण काल की लोहे की खदानें मिली हैं। इन सब लौह अयस्कों से बने विकसित उपकरणों के फलस्वरूप सातवाहनों के अधीन कृषि अर्थव्यवस्था को व्यापक प्रोत्साहन मिला एवं कृष्णा-गोदावरी डेल्टा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर चावल का उत्पादन होने लगा। कपास भी एक मुख्य फसल के रूप में स्थापित हुई। भूमि अनुदान के माध्यम से नये क्षेत्रों में कृषि के प्रसार को विशेष प्रोत्साहन दिया गया। खाद्यान्नों की उपलब्धता ने जनसंख्या वृद्धि को संभव बनाया। समकालीन पुरातात्विक एवं साहित्यिक स्रोत सातवाहन साम्राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी भाग में एक बड़ी जनसंख्या की उपस्थिति की सूचना देते हैं। प्लिनी के अनुसार आंध्र राज्य की सेना में 1,00,000 पैदल सिपाही, 2,000 पुड़सवार और 1,000 हाथी थे। इससे सिद्ध होता है कि ग्रामीण आबादी अधिक अवस्था में रही होगी और वह इतनी बड़ी सेना के पोषण के लायक पर्याप्त अनाज पैदा करती रही होगी।
6. चंद्रगुप्त मौर्य
अनेक बौद्ध ग्रन्थ बिना किसी सन्देह के चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय घोषित करते हैं। महावोधिवंश उसे राजकुल से सम्बन्धित बताता है, जो मोरिय नगर में उत्पन्न हुआ था। महावंश में चन्द्रगुप्त को 'मोरिय' नामक क्षत्रिय वंश में उत्पन्न कहा गया है। महापरिनिब्बान सुत्त में मौर्यों को पिप्लाविन का शासक तथा क्षत्रिय वंश का कहा गया है। यह प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ है अतः अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय माना जा सकता है।
हेमचन्द्र कृत परिशिष्टपर्वन में चन्द्रगुप्त को मयूर पोषकों के ग्राम के मुखिया की पुत्री का पुत्र बताया गया है। इस प्रकार जैन एवं बौद्ध दोनों ही साक्ष्य मौर्यों को 'मयूर' से सम्बन्धित करते हैं। इस मत की पुष्टि अशोक लौरियानन्दनगढ़ के स्तम्भ के नीचे के भाग में उत्कीर्ण मयूर की आकृति से भी हो जाती है। अतः उपरोक्त विवरण से निष्कर्ष निकलता है कि मौर्य कौन थे इस विषय पर निश्चित मत देना कठिन है। लेकिन विविध स्रोतों के आधार बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ सत्यता के अधिक निकट दिखाई देते हैं।
7. संगमकालीन दक्षिण भारत
दक्षिण भारत को जानने का प्रमुख स्त्रोत संगम साहित्य को माना जाता है, इन संगम साहित्यों का संकलन ईसा की तीसरी- चौथी शताब्दी के दौरान हुआ था। उत्तर भारतीय वैदिक ग्रंथों में भी इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं की शनैः-शनैः ही सही वैदिक संस्कृति का प्रसार दक्षिण भारत की ओर हो रहा था, आगे हम संगम साहित्य में उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय संस्कृतियों का श्रेष्ठ समन्वय देखते हैं। फिर भी इन साहित्यों के माध्यम से हमें चेर, चोल, तथा पांड्य राज्यों की पूर्ण राजनैतिक गतिविधियां, शासकों के कालक्रम, तिथिक्रम इत्यादि की जानकारी प्राप्त नहीं होती परन्तु यह संगम साहित्य, तत्कालीन दक्षिण भारतीय जीवन के समस्त पहलूओं यथा सामजिक, आर्थिक तथा धार्मिक जीवन के बारे में यथेष्ट जानकारी मुहैयाकरवाने के साथ साथ दक्षिण भारत के वैदेशिक व्यापार संबंधों पर भी प्रकाश डालता है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि संगमकालीन साहित्य का एक विपुल भण्डार रहा होगा और समय के थपेड़ों को सहन करते हुए जो कृतियाँ शेष रह गई आज वह हमें संगम- साहित्य के रूप में उपलब्ध हैं।
8. कुषाण कालीन कला
काल में हमें स्थापत्य कला के एक रूप में आवासीय संरचना का साक्ष्य कम मिलता है इसका कारण है कि संभवतः ये शीघ्र नष्ट हो जाने वाली सामग्रियों से निर्मित की गयी थी। वहीं दूसरी तरफ अस्पष्ट रूप में मंदिरों के कुछ साक्ष्य मिलते हैं। किंतु इस काल में संभवतः मंदिरों में मूर्तियों को स्थापित कर औपचारिक रूप में मूर्तिपूजा आरंभ नहीं हुई थी। वस्तुतः इस काल की स्थापत्य कला मूलतः बौद्ध दृष्टिकोण से परिचालित थी फिर भी मौर्यकाल की तुलना में इसके स्वरूप में एक महत्वपूर्ण अंतर देखने को मिलता है। वस्तुतः मौर्य काल में कला राजकीय संरक्षण में पली एवं बढ़ी इसलिए मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही कुछ कला शैलियां लुप्त हो गई। वहीं मौर्योतर कला को एक व्यापक सामाजिक आधार प्राप्त हुआ क्योंकि राज्य के साथ-साथ इसे व्यापारी, शिल्प श्रेणियां, कुलीन तथा अन्य प्रकार के नवधनाढ्य लोगों का भी संरक्षण प्राप्त हुआ। इतना ही नहीं अपितु कला को भिक्षुक एवं भिक्षुणियों का भी संरक्षण मिला। वहीं दूसरी तरफ यह वह काल था जब
धर्म के क्षेत्र में आर्य तत्वों के साथ गैर आर्य तत्वों का भी समावेशीकरण हो रहा था। यह प्रवृत्ति हमें कला के क्षेत्र में भी देखने को मिलती है।
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