BAPS(N)102 most important questions 2024

               BAPS(N)102 MOST                   IMPORTANT SOLVED.                   QUESTIONS 2024.         DOWNLOAD QUESTIONS

Question:01 -  तुलनात्मक राजनीति के अर्थ एवं प्रकृति विवेचना कीजिए।
उत्तर:
तुलनात्मक राजनीति एक ऐसा अध्ययन क्षेत्र है जिसमें विभिन्न देशों के राजनीतिक प्रणालियों, संस्थानों, प्रक्रियाओं, और व्यवहारों की तुलना की जाती है। इसका उद्देश्य यह समझना है कि अलग-अलग राजनीतिक प्रणालियाँ कैसे काम करती हैं और क्यों वे एक-दूसरे से भिन्न होती हैं।

**अर्थ:** तुलनात्मक राजनीति का अर्थ है, विभिन्न देशों के राजनीतिक तंत्रों और प्रक्रियाओं की तुलना करके उनके बीच समानताओं और अंतर को समझना। यह अध्ययन हमें यह जानने में मदद करता है कि कौन सी प्रणाली किस परिस्थिति में बेहतर काम करती है और किन कारकों के कारण राजनीतिक परिवर्तन होते हैं।

**प्रकृति:** तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति बहुआयामी है। इसमें निम्नलिखित बिंदु शामिल होते हैं:

1. **विविधता का अध्ययन:** विभिन्न देशों की राजनीतिक प्रणालियों का अध्ययन करके उनकी विशेषताओं और विविधताओं को समझना।
2. **सामान्य सिद्धांतों की खोज:** अलग-अलग प्रणालियों के बीच सामान्य सिद्धांतों और नियमों को ढूंढना, जिससे हम राजनीतिक व्यवहार को बेहतर तरीके से समझ सकें।
3. **कारण और प्रभाव का विश्लेषण:** राजनीतिक घटनाओं के पीछे के कारणों और उनके प्रभावों का विश्लेषण करना।
4. **वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग:** तुलनात्मक राजनीति में वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग किया जाता है, जिसमें डेटा संग्रहण, विश्लेषण और निष्कर्ष निकालने की प्रक्रियाएं शामिल होती हैं।

**महत्व:** तुलनात्मक राजनीति का महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह हमें विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों की ताकत और कमजोरियों को पहचानने में मदद करता है। इससे हम अपने देश की राजनीति को सुधारने के लिए अन्य देशों के सफल उदाहरणों से सीख सकते हैं।

**उपसंहार:** संक्षेप में, तुलनात्मक राजनीति हमें विश्व के विभिन्न हिस्सों में राजनीतिक प्रणालियों के कामकाज को समझने और उनकी तुलना करने का अवसर प्रदान करती है। इससे हमें यह जानने में मदद मिलती है कि किन परिस्थितियों में कौन सी राजनीतिक प्रणाली सबसे अधिक प्रभावी हो सकती है। यह अध्ययन न केवल शैक्षणिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि व्यावहारिक नीति निर्माण के लिए भी अत्यंत उपयोगी है।

Question:02 परंपरागत तुलनात्मक राजनीति के विशेषताओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
परंपरागत तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का मुख्य जोर देशों के राजनीतिक संस्थानों, सरकारों, संविधानों, और कानूनी ढाँचों पर होता था। यह दृष्टिकोण 1950 के दशक तक प्रमुख रहा। आइए इसके कुछ प्रमुख विशेषताओं की विवेचना करें:

1. **संस्थागत विश्लेषण:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति का मुख्य फोकस राजनीतिक संस्थानों पर था। इसमें संविधान, संसद, न्यायपालिका, और कार्यपालिका जैसे संस्थानों का अध्ययन शामिल था।

2. **विवरणात्मक दृष्टिकोण:** इस अध्ययन पद्धति में विवरणात्मक विश्लेषण को प्राथमिकता दी जाती थी। इसमें राजनीतिक प्रणालियों और उनके घटकों का वर्णन किया जाता था, न कि उनके पीछे के कारणों और प्रभावों का विश्लेषण।

3. **कानूनी-औपचारिक दृष्टिकोण:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति में कानूनी और औपचारिक संरचनाओं का विश्लेषण महत्वपूर्ण था। इसमें संवैधानिक प्रावधानों, कानूनी व्यवस्थाओं और औपचारिक नियमों का अध्ययन प्रमुख था।

4. **देश-विशिष्ट अध्ययन:** इस दृष्टिकोण में एक समय में केवल एक देश की राजनीतिक प्रणाली का गहन अध्ययन किया जाता था, बजाय विभिन्न देशों की प्रणालियों की तुलना करने के।

5. **ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति में ऐतिहासिक घटनाओं और प्रक्रियाओं का अध्ययन महत्वपूर्ण था। इससे यह समझने में मदद मिलती थी कि वर्तमान राजनीतिक संस्थाएँ और प्रणालियाँ कैसे विकसित हुई हैं।

6. **मूल्यों और आदर्शों पर जोर:** इस अध्ययन पद्धति में राजनीतिक संस्थाओं और प्रणालियों के आदर्श और मूल्यों पर जोर दिया जाता था, जैसे लोकतंत्र, स्वतंत्रता, और न्याय।

7. **व्यक्तिगत नेतृत्व का महत्व:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक नेताओं और उनके व्यक्तिगत नेतृत्व शैली का भी अध्ययन किया जाता था, क्योंकि उनका व्यक्तित्व और निर्णय प्रणाली पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता था।

परंपरागत तुलनात्मक राजनीति के ये विशेषताएँ इस अध्ययन पद्धति को एक मजबूत आधार प्रदान करती हैं, लेकिन इसके कुछ सीमाएँ भी हैं, जैसे कि सामाजिक और आर्थिक कारकों का अपर्याप्त विश्लेषण। फिर भी, यह दृष्टिकोण आज भी महत्वपूर्ण है, विशेषकर राजनीतिक संस्थाओं और उनके विकास के अध्ययन में।

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Question:3  परंपरागत तुलनात्मक और आधुनिक तुलनात्मक राजनीति की आलोचना कीजिए।
उत्तर:
**परंपरागत तुलनात्मक राजनीति की आलोचना:**

1. **संकीर्ण दृष्टिकोण:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति में मुख्य रूप से संस्थागत और कानूनी संरचनाओं पर जोर दिया जाता था, जिससे समाज के अन्य महत्वपूर्ण पहलू, जैसे कि सामाजिक और आर्थिक कारक, उपेक्षित रह जाते थे।

2. **विवरणात्मकता:** इस दृष्टिकोण में अधिकतर विवरणात्मक विश्लेषण होता था, जिसमें प्रक्रियाओं और घटनाओं का केवल वर्णन किया जाता था, बजाय उनके पीछे के कारणों और प्रभावों का विश्लेषण करने के।

3. **कम तुलनात्मकता:** परंपरागत दृष्टिकोण में एक समय में केवल एक देश का अध्ययन किया जाता था, जिससे देशों के बीच तुलनात्मक अध्ययन का अभाव रहता था। यह दृष्टिकोण विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों के बीच संबंधों और अंतरों को समझने में सीमित था।

4. **आदर्शवादी दृष्टिकोण:** परंपरागत तुलनात्मक राजनीति में आदर्शवादी दृष्टिकोण अपनाया जाता था, जिसमें राजनीतिक संस्थाओं और प्रणालियों के आदर्श और मूल्यों पर अधिक जोर दिया जाता था, जिससे वास्तविकता की समझ कम होती थी।

5. **ऐतिहासिक सीमाएँ:** यह दृष्टिकोण अधिकतर ऐतिहासिक घटनाओं और प्रक्रियाओं पर आधारित होता था, जिससे वर्तमान समय की जटिलताओं और परिवर्तनों का विश्लेषण करने में कठिनाई होती थी।

**आधुनिक तुलनात्मक राजनीति की आलोचना:**

1. **अत्यधिक जटिलता:** आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक कारकों को शामिल किया जाता है, जिससे इसका विश्लेषण अत्यधिक जटिल और विस्तृत हो जाता है। इस जटिलता के कारण स्पष्ट निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो सकता है।

2. **वैज्ञानिकता पर जोर:** आधुनिक दृष्टिकोण में वैज्ञानिक पद्धति और मात्रात्मक विश्लेषण पर जोर दिया जाता है, जिससे कभी-कभी मानवीय पहलुओं और राजनीतिक प्रक्रियाओं की संपूर्ण समझ में कमी रह जाती है।

3. **सांख्यिकीय निर्भरता:** आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में सांख्यिकीय डेटा और मॉडलिंग पर अत्यधिक निर्भरता होती है, जिससे विश्लेषण में सटीकता तो आती है, लेकिन कभी-कभी जमीनी हकीकत और गुणात्मक पहलू उपेक्षित रह जाते हैं।

4. **सांस्कृतिक विविधता की उपेक्षा:** आधुनिक दृष्टिकोण में कभी-कभी सांस्कृतिक और क्षेत्रीय विविधताओं की पर्याप्त समझ नहीं होती, जिससे विश्लेषण में सामान्यीकरण की समस्या उत्पन्न हो सकती है।

5. **राजनीतिक पूर्वाग्रह:** आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में भी राजनीतिक पूर्वाग्रह हो सकते हैं, जो विश्लेषण और निष्कर्षों को प्रभावित कर सकते हैं। इससे निष्पक्ष और संतुलित अध्ययन में कमी हो सकती है।

6. **विचारधारात्मक प्रभाव:** आधुनिक तुलनात्मक राजनीति में विभिन्न विचारधारात्मक दृष्टिकोणों का प्रभाव हो सकता है, जिससे विश्लेषण और निष्कर्षों में पूर्वाग्रह आ सकते हैं।

सारांश में, परंपरागत और आधुनिक दोनों दृष्टिकोणों की अपनी-अपनी सीमाएँ और आलोचनाएँ हैं। परंपरागत दृष्टिकोण में जहाँ संस्थागत और कानूनी संरचनाओं पर अधिक जोर था, वहीं आधुनिक दृष्टिकोण में समाज, अर्थव्यवस्था, और संस्कृति के व्यापक पहलुओं को शामिल किया जाता है। दोनों दृष्टिकोणों को मिलाकर एक संतुलित और समग्र अध्ययन किया जा सकता है।

Question:4  संविधान वाद का अर्थ एवं परिभाषा बताते हुए संविधानों के वर्गीकरण को स्पष्ट करें।
उत्तर:
**संविधानवाद का अर्थ और परिभाषा:**

संविधानवाद एक सिद्धांत है जो कहता है कि सरकार की शक्ति सीमित होनी चाहिए और वह संविधान के अधीन होनी चाहिए। इसका उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और सत्ता के दुरुपयोग को रोकना है। यह सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति का संतुलन स्थापित करता है और सुनिश्चित करता है कि किसी भी अंग को निरंकुश शक्ति न मिले। संविधानवाद की मुख्य विशेषता है कि यह कानून की सर्वोच्चता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मान्यता देता है।

**संविधानों के वर्गीकरण:**

1. **लिखित और अलिखित संविधान:**
   - *लिखित संविधान:* जिसे औपचारिक रूप से लिखा गया है, जैसे कि भारत और अमेरिका का संविधान।
   - *अलिखित संविधान:* जहां परंपराओं, अदालतों के निर्णयों और विभिन्न कानूनों का संग्रह संविधान का कार्य करता है, जैसे कि ब्रिटेन का संविधान।

2. **कठोर और लचीला संविधान:**
   - *कठोर संविधान:* जिसे संशोधित करना कठिन होता है और इसमें विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जैसे कि अमेरिका का संविधान।
   - *लचीला संविधान:* जिसे संशोधित करना अपेक्षाकृत आसान होता है, जैसे कि ब्रिटेन का संविधान।

3. **संघीय और एकात्मक संविधान:**
   - *संघीय संविधान:* जिसमें सत्ता केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विभाजित होती है, जैसे कि भारत और अमेरिका का संविधान।
   - *एकात्मक संविधान:* जिसमें सभी शक्तियाँ केंद्र सरकार के पास होती हैं, जैसे कि ब्रिटेन का संविधान।

4. **लोकतांत्रिक और अधिनायकवादी संविधान:**
   - *लोकतांत्रिक संविधान:* जिसमें नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा की जाती है और सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है, जैसे कि भारत का संविधान।
   - *अधिनायकवादी संविधान:* जिसमें सरकार के पास अत्यधिक शक्ति होती है और नागरिकों की स्वतंत्रता सीमित होती है, जैसे कि पूर्व सोवियत संघ का संविधान।

संविधानवाद का मुख्य उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना और सरकार की शक्ति को नियंत्रित करना है ताकि एक संतुलित और न्यायसंगत समाज का निर्माण हो सके
उत्तर:
संविधान की आवश्यकता और इसके विकास को समझने के लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है:

 संविधान की आवश्यकता

1. **कानूनी ढांचा प्रदान करना**: संविधान एक देश के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है। यह सरकार और नागरिकों के बीच संबंधों को निर्धारित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि कानून और नीतियाँ समाज में अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखने में सक्षम हों।

2. **सत्ता का विभाजन**: संविधान सरकार की विभिन्न शाखाओं, जैसे कि विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका, के बीच शक्तियों का विभाजन सुनिश्चित करता है। इससे शक्ति का केंद्रीकरण रोका जाता है और सभी शाखाओं में संतुलन बनाए रखा जाता है।

3. **नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य**: संविधान नागरिकों के मौलिक अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करता है, जिससे नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं और कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं।

4. **लोकतांत्रिक शासन का आधार**: संविधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनाव प्रणाली को निर्धारित करता है, जिससे देश में निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव हो सकते हैं और नागरिक अपनी सरकार का चुनाव कर सकते हैं।

5. **सामाजिक न्याय और समानता**: संविधान सामाजिक न्याय और समानता की अवधारणाओं को प्रमोट करता है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म, लिंग या आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव का सामना नहीं करना पड़े।
 संविधान का विकास

1. **प्राचीन काल**: सबसे पहले, संविधान का विकास प्राचीन काल में शुरू हुआ, जब समाज में कानून और आदेश बनाए रखने के लिए कुछ नियम और परंपराएँ स्थापित की गईं। उदाहरण के लिए, हाम्मूराबी की संहिता और मनु स्मृति।

2. **मध्यकाल**: मध्यकाल में विभिन्न साम्राज्यों और राज्यों में शासकों ने अपने क्षेत्रों में कानून और शासन के नियम निर्धारित किए। इस समय के दौरान, संविधानों का विकास थोड़ा और परिष्कृत हुआ।

3. **आधुनिक काल**: आधुनिक काल में, संविधानों का विकास तेजी से हुआ। विशेष रूप से 17वीं और 18वीं सदी में, जैसे कि अमेरिका का संविधान (1787) और फ्रांस का संविधान (1791)। इन संविधानों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानव अधिकारों, और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को प्रमुखता दी।

4. **उपनिवेशी काल और स्वतंत्रता आंदोलनों**: 19वीं और 20वीं सदी में विभिन्न देशों ने औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्राप्त की और अपने-अपने संविधानों का निर्माण किया। जैसे भारत का संविधान (1950) जो दुनिया का सबसे विस्तृत लिखित संविधान है।

5. **समकालीन समय**: समकालीन समय में, संविधानों का विकास लगातार जारी है, जिसमें नए संशोधन, संवैधानिक सुधार और आधुनिक जरूरतों के अनुसार परिवर्तन शामिल हैं।

संविधान के विकास की यह प्रक्रिया बताती है कि यह एक निरंतर विकसित होने वाली व्यवस्था है, जो समाज की बदलती जरूरतों और समय के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए संशोधित होती रहती है।

Question: 6 संवैधानिक सरकार क्या है और इसकी क्या विशेषताएं हैं?
उत्तर: 
संवैधानिक सरकार एक ऐसी सरकार होती है जो एक लिखित या अलिखित संविधान के आधार पर संचालित होती है। यह संविधान सरकार की शक्तियों, दायित्वों, और नागरिकों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। संवैधानिक सरकार की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

 संवैधानिक सरकार की विशेषताएँ

1. **कानूनी ढांचा**: संविधान सरकार के विभिन्न अंगों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) की शक्तियों और कर्तव्यों को परिभाषित करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि सभी सरकारी क्रियाएँ संवैधानिक ढांचे के भीतर ही हों।

2. **सीमित सरकार**: संवैधानिक सरकार में सरकार की शक्तियों को सीमित किया जाता है ताकि कोई भी सरकारी अंग या अधिकारी निरंकुश न बन सके। संविधान के माध्यम से सरकार की शक्तियों को नियंत्रित किया जाता है।

3. **नागरिक अधिकार**: संवैधानिक सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करती है। ये अधिकार संविधान में दर्ज होते हैं और सरकार के किसी भी अंग द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता।

4. **सत्ता का विभाजन**: संवैधानिक सरकार में शक्तियों का विभाजन होता है, जिससे एक अंग की शक्ति दूसरे अंग पर संतुलन बनाए रखती है। इससे शक्ति के केंद्रीकरण और दुरुपयोग को रोका जाता है।

5. **लोकतांत्रिक प्रक्रिया**: संवैधानिक सरकार में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है, जैसे कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, बहुमत का शासन, और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा।

6. **संविधान का पालन**: संवैधानिक सरकार में संविधान सर्वोच्च होता है और सभी सरकारी निर्णय और कार्य संविधान के अनुसार ही किए जाते हैं। अगर किसी सरकारी निर्णय या कार्य को असंवैधानिक पाया जाता है, तो न्यायपालिका उसे अवैध घोषित कर सकती है।

उदाहरण

1. **भारत**: भारत एक संवैधानिक सरकार है, जिसका संचालन भारतीय संविधान के आधार पर होता है। भारतीय संविधान सरकार की संरचना, शक्तियों, और नागरिकों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है।

2. **संयुक्त राज्य अमेरिका**: अमेरिका में भी संवैधानिक सरकार है, जहाँ अमेरिकी संविधान सरकार की सभी शाखाओं की शक्तियों और नागरिकों के अधिकारों को परिभाषित करता है।

संवैधानिक सरकार के अंतर्गत, संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और यह सुनिश्चित करता है कि सरकार और उसके सभी अंग अपने निर्धारित सीमाओं में कार्य करें। इससे नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों की सुरक्षा होती है और सरकार की शक्ति का दुरुपयोग नहीं हो पाता।


Question:07 संविधानवाद का अर्थ और परिभाषा बताते हुए संविधानवाद की अवधारणाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संविधानवाद (Constitutionalism) एक राजनीतिक सिद्धांत और प्रणाली है, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है कि सरकार की सभी क्रियाएँ और नीतियाँ संविधान के अनुसार ही हों। यह सिद्धांत यह मानता है कि संविधान सरकार की शक्तियों को सीमित करता है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है। संविधान वाद का मुख्य उद्देश्य एक संतुलित और न्यायपूर्ण शासन प्रणाली स्थापित करना है, जिसमें सरकार के विभिन्न अंगों के बीच शक्ति का विभाजन और संतुलन होता है।

 संविधान वाद की परिभाषा

संविधान वाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सरकार की शक्तियाँ और अधिकार संविधान द्वारा निर्धारित होते हैं, और यह सुनिश्चित किया जाता है कि कोई भी सरकारी अंग या अधिकारी संविधान के नियमों और प्रावधानों का उल्लंघन न करे।

संविधान वाद की दो प्रमुख अवधारणाएँ हैं: पाश्चात्य अवधारणा (Western Concept) और साम्यवादी अवधारणा (Communist Concept)। इन दोनों अवधारणाओं में संविधान वाद के सिद्धांतों को भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाता है।

पाश्चात्य अवधारणा

पाश्चात्य संविधान वाद की अवधारणा मुख्यतः पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में विकसित हुई है। इसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

1. **लोकतांत्रिक सिद्धांत**:
   - **लोकतंत्र और स्वतंत्रता**: पाश्चात्य संविधान वाद लोकतंत्र, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत अधिकारों पर जोर देता है। इसमें नागरिकों की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा महत्वपूर्ण मानी जाती है।
   - **चुनाव प्रणाली**: सरकार के गठन के लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों का आयोजन होता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि सरकार जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है।

2. **सत्ता का विभाजन**:
   - **तीनों शाखाओं में संतुलन**: सरकार की शक्तियों को तीन शाखाओं - विधायिका, कार्यपालिका, और न्यायपालिका - के बीच विभाजित किया जाता है। इससे शक्ति का केंद्रीकरण रोका जाता है और एक अंग दूसरे अंग पर संतुलन बनाए रखता है।
   - **न्यायिक समीक्षा**: न्यायपालिका के पास कानूनों और सरकारी कार्यों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति होती है। यह सुनिश्चित करता है कि सरकार संविधान के दायरे में रहे।

3. **कानूनी शासन (Rule of Law)**:
   - **सभी के लिए समान कानून**: कानून सबके लिए समान होता है और कोई भी व्यक्ति या संस्था कानून से ऊपर नहीं होती।
   - **संविधान की सर्वोच्चता**: संविधान देश का सर्वोच्च कानून होता है और सभी सरकारी कार्य और नीतियाँ इसके अनुरूप होती हैं।

 साम्यवादी अवधारणा

साम्यवादी संविधान वाद की अवधारणा मुख्यतः साम्यवादी देशों में विकसित हुई है, जैसे कि सोवियत संघ (अब विघटित), चीन, क्यूबा आदि। इसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:

1. **साम्यवादी सिद्धांत**:
   - **सामाजिक और आर्थिक समानता**: साम्यवादी संविधान वाद का मुख्य उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक समानता स्थापित करना है। इसमें उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक स्वामित्व और केंद्रीकृत नियोजन पर जोर दिया जाता है।
   - **समूह अधिकारों की प्राथमिकता**: व्यक्तिगत अधिकारों की बजाय समूह अधिकारों और सामूहिक भलाई पर जोर दिया जाता है।

2. **एकदलीय प्रणाली**:
   - **एकदलीय शासन**: साम्यवादी देशों में आमतौर पर एकदलीय प्रणाली होती है, जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी का एकाधिकार होता है। अन्य राजनीतिक दलों की गतिविधियाँ सीमित या निषिद्ध होती हैं।
   - **केन्द्रीयकृत सत्ता**: सत्ता का केंद्रीकरण होता है और सरकार के सभी अंग पार्टी के अधीन होते हैं।

3. **राज्य की भूमिका**:
   - **राज्य का नियंत्रण**: राज्य का व्यापक नियंत्रण होता है, जिसमें आर्थिक और सामाजिक जीवन के लगभग सभी पहलुओं को शामिल किया जाता है।
   - **संविधान का लचीला दृष्टिकोण**: संविधान को सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार आसानी से बदला जा सकता है। यह राज्य की योजनाओं और नीतियों के अनुसार लचीला होता है।

 सारांश

**पाश्चात्य अवधारणा** और **साम्यवादी अवधारणा** दोनों ही संविधान वाद के विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं। पाश्चात्य अवधारणा लोकतंत्र, स्वतंत्रता और कानूनी शासन पर जोर देती है, जबकि साम्यवादी अवधारणा सामाजिक और आर्थिक समानता, एकदलीय शासन और राज्य के व्यापक नियंत्रण पर आधारित है। दोनों ही प्रणालियाँ अपने-अपने संदर्भ में संविधान वाद के सिद्धांतों को लागू करती हैं, लेकिन उनके उद्देश्य और कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण अंतर होते हैं।

Question:08 संविधानवाद के प्रमुख तत्वों के बारे में बताइए।
उत्तर:
संविधान वाद (Constitutionalism) के प्रमुख तत्व वह आधारभूत सिद्धांत हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि एक सरकार संविधान के अनुसार संचालित हो और नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा हो। ये तत्व निम्नलिखित हैं:

 1. संविधान की सर्वोच्चता
- **परिभाषा**: संविधान को सर्वोच्च कानून माना जाता है और सभी सरकारी कार्य और नीतियाँ इसके अनुरूप होनी चाहिए।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, संस्था या सरकारी अंग संविधान से ऊपर नहीं है। 

 2. सत्ता का विभाजन
- **परिभाषा**: सरकार की शक्तियों को तीन शाखाओं में विभाजित किया जाता है: विधायिका (Legislature), कार्यपालिका (Executive), और न्यायपालिका (Judiciary)।
- **महत्व**: यह शक्ति के केंद्रीकरण को रोकता है और विभिन्न शाखाओं के बीच संतुलन और जांच बनाए रखता है।

3. कानून का शासन (Rule of Law)
- **परिभाषा**: कानून सभी व्यक्तियों और सरकारी अंगों पर समान रूप से लागू होता है।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि कानून सबके लिए समान हो और किसी को भी कानून से ऊपर या विशेष अधिकार प्राप्त न हों।

 4. मौलिक अधिकार
- **परिभाषा**: नागरिकों के अधिकार और स्वतंत्रताएँ जो संविधान में संरक्षित हैं।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों का सम्मान और सुरक्षा हो।

 5. न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)
- **परिभाषा**: न्यायपालिका की वह शक्ति जिसके माध्यम से वह यह जांच सकती है कि सरकारी क्रियाएँ और नीतियाँ संवैधानिक हैं या नहीं।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी कानून या सरकारी कार्रवाई संविधान का उल्लंघन न करे।

 6. लोकतांत्रिक प्रक्रिया
- **परिभाषा**: सरकार का गठन स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से होता है।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि सरकार जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है और जवाबदेह होती है।

 7. सत्ता की सीमाएँ
- **परिभाषा**: सरकार की शक्तियों पर संवैधानिक और कानूनी सीमाएँ होती हैं।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि सरकार निरंकुश न बन सके और उसकी शक्तियों का दुरुपयोग न हो।

8. जिम्मेदार सरकार
- **परिभाषा**: सरकार अपने कार्यों के लिए जनता के प्रति जिम्मेदार होती है।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि सरकार पारदर्शी, उत्तरदायी और जवाबदेह हो।

9. स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका
- **परिभाषा**: न्यायपालिका स्वतंत्र होती है और उसके निर्णय किसी भी बाहरी दबाव या हस्तक्षेप से मुक्त होते हैं।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि न्याय प्रणाली निष्पक्ष हो और न्याय की निष्पक्षता बनी रहे।

 10. सार्वजनिक भागीदारी
- **परिभाषा**: नागरिकों को सरकार के निर्णयों और नीतियों में भाग लेने का अधिकार होता है।
- **महत्व**: यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की नीतियाँ और निर्णय जनता की इच्छाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप हों।

 सारांश

संविधान वाद के प्रमुख तत्व सरकार की शक्तियों को सीमित करने, नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा करने, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये तत्व एक न्यायपूर्ण, संतुलित, और उत्तरदायी शासन प्रणाली सुनिश्चित करते हैं, जहाँ कानून का पालन सर्वोच्च होता है और नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकार संरक्षित रहते हैं।


Questions:9 संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ और परिभाषा बताते हुए इसके विशेषताएं गुण और दोष बताइए

Answer: संसदात्मक शासन प्रणाली (Parliamentary System) एक ऐसा राजनीतिक ढांचा है, जिसमें कार्यपालिका (Executive) की शक्ति विधायिका (Legislature) से निकलती है और उसी के प्रति उत्तरदायी होती है। यह प्रणाली मुख्यतः ब्रिटेन और उसके पूर्व उपनिवेशों में पाई जाती है। भारत, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और कई अन्य देशों ने भी इस प्रणाली को अपनाया है।

संसदात्मक शासन प्रणाली की परिभाषा
संसदात्मक शासन प्रणाली एक ऐसी प्रणाली है, जिसमें सरकार की कार्यकारी शाखा विधायिका की समर्थन और विश्वास पर आधारित होती है। इसमें प्रधानमंत्री और उनके मंत्री संसद के सदस्यों के रूप में कार्य करते हैं और सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।

 विशेषताएँ

1. **सत्ता का विभाजन**:
   - **कार्यपालिका और विधायिका के बीच घनिष्ठ संबंध**: कार्यपालिका (प्रधानमंत्री और उनके मंत्री) विधायिका (संसद) के सदस्य होते हैं और संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं।
   
2. **प्रधानमंत्री की भूमिका**:
   - **प्रधानमंत्री का चयन**: प्रधानमंत्री उस पार्टी या गठबंधन से चुना जाता है, जिसे संसद के निचले सदन में बहुमत प्राप्त होता है।
   - **मंत्रिपरिषद**: प्रधानमंत्री अपने मंत्रिपरिषद का चयन करता है, जो संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

3. **सरकार की उत्तरदायित्व**:
   - **वोट ऑफ नो कांफिडेंस**: यदि संसद को लगता है कि सरकार ने उसका विश्वास खो दिया है, तो वह "वोट ऑफ नो कांफिडेंस" के माध्यम से सरकार को हटा सकती है।

4. **द्विसदनीय विधानमंडल**:
   - **निचला और ऊपरी सदन**: अधिकांश संसदात्मक प्रणाली में दो सदन होते हैं: निचला सदन (लोकसभा/हाउस ऑफ कॉमन्स) और ऊपरी सदन (राज्य सभा/हाउस ऑफ लॉर्ड्स)।

गुण

1. **स्थायित्व और निरंतरता**:
   - सरकारें अक्सर स्थिर होती हैं, क्योंकि उन्हें संसद का विश्वास प्राप्त होता है और इस विश्वास को बनाए रखने के लिए कार्य करना पड़ता है।

2. **उत्तरदायित्व**:
   - सरकार संसद के प्रति उत्तरदायी होती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि सरकार के कार्य और नीतियाँ संसद और जनता के समक्ष पारदर्शी हों।

3. **लचीलापन**:
   - संसदात्मक प्रणाली लचीली होती है, क्योंकि अगर सरकार अपना विश्वास खो देती है, तो नई सरकार आसानी से बन सकती है।

4. **सहयोग**:
   - विधायिका और कार्यपालिका के बीच घनिष्ठ संबंध होने के कारण नीति निर्माण और क्रियान्वयन में समन्वय और सहयोग बढ़ता है।

 दोष

1. **अस्थिरता**:
   - यदि संसद में कोई पार्टी या गठबंधन बहुमत प्राप्त नहीं कर पाता, तो बार-बार चुनाव और सरकार का पतन हो सकता है, जिससे राजनीतिक अस्थिरता हो सकती है।

2. **कार्यपालिका का प्रभुत्व**:
   - कार्यपालिका (प्रधानमंत्री और मंत्री) विधायिका (संसद) के सदस्य होते हैं, जिससे कार्यपालिका का विधायिका पर अधिक प्रभुत्व हो सकता है।

3. **अत्यधिक राजनीति**:
   - संसदात्मक प्रणाली में सरकार को सत्ता में बने रहने के लिए हमेशा संसद का समर्थन प्राप्त करना पड़ता है, जिससे अत्यधिक राजनीति और चुनावी रणनीति पर ध्यान केंद्रित हो सकता है।

4. **अल्पसंख्यक सरकारें**:
   - यदि कोई पार्टी या गठबंधन स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त करता है, तो अल्पसंख्यक सरकारें बन सकती हैं, जो प्रभावी निर्णय लेने में अक्षम हो सकती हैं।

 सारांश

संसदात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है और सरकार का गठन संसद के समर्थन पर निर्भर करता है। इस प्रणाली के कई गुण हैं, जैसे स्थायित्व, उत्तरदायित्व, लचीलापन और सहयोग, लेकिन इसमें अस्थिरता, कार्यपालिका का प्रभुत्व, अत्यधिक राजनीति, और अल्पसंख्यक सरकारों जैसी कुछ दोष भी हैं। यह प्रणाली लोकतांत्रिक सरकार का एक महत्वपूर्ण और व्यापक रूप है, जिसे कई देशों ने अपनाया है।


Question: 10 अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का अर्थ बताते हुए इसके विशेषताएं गुण और दोष के बारे में विस्तार से चर्चा कीजिए।

Answer:

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली (Presidential System) एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (Executive) और विधायिका (Legislature) स्वतंत्र और पृथक होते हैं। इस प्रणाली में राष्ट्रपति (President) सरकार का प्रमुख होता है और उसे सीधे जनता द्वारा चुना जाता है। 

 अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का अर्थ और परिभाषा

**अर्थ**: अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली वह शासन प्रणाली है जिसमें राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख और सरकार का प्रमुख दोनों होता है। वह सीधे जनता द्वारा चुना जाता है और विधायिका से स्वतंत्र रूप से कार्य करता है।

**परिभाषा**: अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली वह प्रणाली है जिसमें राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है और विधायिका से स्वतंत्र होकर कार्य करता है। राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है और वह अपनी सरकार के कार्यों के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होता है।

 विशेषताएँ

1. **एकल कार्यपालिका**: इस प्रणाली में राष्ट्रपति कार्यपालिका का एकमात्र प्रमुख होता है और वह सभी कार्यकारी शक्तियों का उपयोग करता है।
2. **निर्धारित कार्यकाल**: राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है, जो आमतौर पर 4 या 5 साल का होता है, और उसे बीच में हटाना कठिन होता है।
3. **सत्ता का पृथक्करण**: कार्यपालिका और विधायिका की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से विभाजित होती हैं और एक-दूसरे से स्वतंत्र होती हैं।
4. **विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व नहीं**: राष्ट्रपति विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता, और उसे विधायिका का विश्वास प्राप्त करना आवश्यक नहीं होता।
5. **सर्वोच्च कार्यकारी अधिकारी**: राष्ट्रपति सरकार का सर्वोच्च कार्यकारी अधिकारी होता है और सभी कार्यकारी विभागों और एजेंसियों का प्रमुख होता है।

 गुण

1. **स्थिरता**: राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है, जिससे सरकार में स्थिरता बनी रहती है और अचानक बदलाव नहीं होते।
2. **स्पष्ट नेतृत्व**: एकल कार्यपालिका के कारण स्पष्ट नेतृत्व होता है और निर्णय लेने की प्रक्रिया में स्पष्टता रहती है।
3. **सत्ता का पृथक्करण**: सत्ता का पृथक्करण सुनिश्चित करता है कि कोई भी अंग अत्यधिक शक्ति का उपयोग न करे, जिससे शक्ति का संतुलन बना रहता है।
4. **कुशलता**: राष्ट्रपति के पास स्वतंत्र कार्यकारी शक्तियाँ होती हैं, जिससे निर्णय लेने और नीति बनाने में कुशलता होती है।
5. **जनता के प्रति प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व**: राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा चुना जाता है, जिससे वह जनता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होता है।

दोष

1. **शक्ति का केंद्रीकरण**: राष्ट्रपति के पास अत्यधिक कार्यकारी शक्तियाँ होती हैं, जिससे शक्ति का केंद्रीकरण हो सकता है और निरंकुशता का खतरा बढ़ सकता है।
2. **संघर्ष और गतिरोध**: कार्यपालिका और विधायिका के बीच संघर्ष और गतिरोध की संभावना होती है, विशेषकर जब दोनों अलग-अलग दलों के नियंत्रण में हों।
3. **उत्तरदायित्व की कमी**: विधायिका के प्रति उत्तरदायी न होने के कारण, राष्ट्रपति अपने कार्यों के लिए विधायिका को जवाबदेह नहीं होता, जिससे जवाबदेही में कमी हो सकती है।
4. **अत्यधिक सत्ता**: राष्ट्रपति के पास व्यापक शक्तियाँ होने के कारण, उसका दुरुपयोग होने का खतरा रहता है।
5. **लोकतांत्रिक जोखिम**: चूंकि राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा चुना जाता है, इसलिए लोकप्रियता पर आधारित चुनावी रणनीतियाँ और व्यक्तित्व केंद्रित राजनीति का जोखिम होता है।

सारांश

अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएँ, गुण और दोष इसे एक मजबूत और स्थिर सरकार प्रदान करने वाली प्रणाली बनाते हैं, जबकि शक्ति का केंद्रीकरण और कार्यपालिका-विधायिका के बीच संघर्ष जैसी चुनौतियाँ पेश आती हैं। इस प्रणाली का उद्देश्य एक मजबूत कार्यकारी नेतृत्व और स्पष्ट सत्ता विभाजन सुनिश्चित करना है, जबकि यह प्रणाली विभिन्न संदर्भों में अलग-अलग चुनौतियाँ और फायदे प्रस्तुत करती है।

Question: 11 संसादात्मक और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए।

उत्तर:
संसदीय (Parliamentary) और अध्यक्षात्मक (Presidential) शासन प्रणालियाँ दो प्रमुख सरकारी ढाँचे हैं, जिनमें कार्यपालिका और विधायिका के बीच संबंध और संरचना अलग-अलग होती है। दोनों प्रणालियों के बीच प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:

1. कार्यपालिका का स्वरूप

**संसदीय प्रणाली**:
- **दोहरी कार्यपालिका**: इसमें एक नाममात्र का राज्य प्रमुख (राष्ट्रपति या सम्राट) और एक वास्तविक सरकार प्रमुख (प्रधानमंत्री) होता है।
- **प्रधानमंत्री**: प्रधानमंत्री विधायिका का सदस्य होता है और आमतौर पर संसद के निचले सदन के बहुमत दल का नेता होता है।

**अध्यक्षात्मक प्रणाली**:
- **एकल कार्यपालिका**: इसमें राष्ट्रपति ही राज्य और सरकार का प्रमुख होता है।
- **राष्ट्रपति**: राष्ट्रपति सीधे जनता द्वारा चुना जाता है और विधायिका का सदस्य नहीं होता।

 2. कार्यकारी और विधायी शाखाओं का संबंध

**संसदीय प्रणाली**:
- **घनिष्ठ संबंध**: कार्यपालिका (प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल) विधायिका (संसद) का हिस्सा होती है और उसके प्रति उत्तरदायी होती है।
- **विधायिका का विश्वास**: प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल को संसद का विश्वास प्राप्त करना आवश्यक होता है। यदि विश्वास मत खो देते हैं, तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ता है।

**अध्यक्षात्मक प्रणाली**:
- **स्वतंत्रता**: कार्यपालिका और विधायिका स्वतंत्र और पृथक होती हैं।
- **उत्तरदायित्व**: राष्ट्रपति विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता और उसे बीच में हटाना कठिन होता है, सिवाय महाभियोग (Impeachment) की प्रक्रिया के।

 3. विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व

**संसदीय प्रणाली**:
- **प्रत्येक निर्णय के लिए उत्तरदायी**: प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं और हर निर्णय पर संसद का विश्वास आवश्यक होता है।
- **अल्पसंख्यक सरकारों का अस्तित्व**: बहुमत का समर्थन न होने पर भी गठबंधन सरकारें बन सकती हैं।

**अध्यक्षात्मक प्रणाली**:
- **सीमित उत्तरदायित्व**: राष्ट्रपति सीधे जनता के प्रति उत्तरदायी होता है और विधायिका के प्रति केवल महाभियोग के तहत ही उत्तरदायी होता है।
- **स्थिर कार्यकाल**: राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है और उसे बीच में हटाना कठिन होता है।

 4. सरकार की स्थिरता

**संसदीय प्रणाली**:
- **अस्थिरता का खतरा**: गठबंधन सरकारों और विश्वास मत के कारण सरकारें अस्थिर हो सकती हैं।
- **तेजी से बदलाव**: अविश्वास प्रस्ताव या चुनावी हार की स्थिति में तेजी से सरकार बदल सकती है।

**अध्यक्षात्मक प्रणाली**:
- **स्थिरता**: राष्ट्रपति का निश्चित कार्यकाल होता है, जिससे सरकार में स्थिरता बनी रहती है।
- **गतिरोध का खतरा**: कार्यपालिका और विधायिका में अलग-अलग दलों का नियंत्रण होने पर निर्णय प्रक्रिया में गतिरोध उत्पन्न हो सकता है।

 5. निर्णय लेने की प्रक्रिया

**संसदीय प्रणाली**:
- **सामूहिक निर्णय**: मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से निर्णय लेता है, जिससे विचार-विमर्श और समन्वय बढ़ता है।
- **पार्टी अनुशासन**: सख्त पार्टी अनुशासन होता है, जिससे विधायकों की स्वतंत्रता सीमित हो सकती है।

**अध्यक्षात्मक प्रणाली**:
- **एकल निर्णय**: राष्ट्रपति स्वतंत्र रूप से निर्णय लेता है, जिससे निर्णय प्रक्रिया में तेजी होती है।
- **स्वतंत्रता**: विधायिका के सदस्य स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं और पार्टी अनुशासन का दबाव कम होता है।

 सारांश

संसदीय और अध्यक्षात्मक शासन प्रणालियाँ अपने-अपने संदर्भ में अलग-अलग फायदे और चुनौतियाँ पेश करती हैं। संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका और विधायिका के बीच घनिष्ठ संबंध और उत्तरदायित्व पर जोर दिया जाता है, जबकि अध्यक्षात्मक प्रणाली में स्वतंत्र और शक्तिशाली कार्यपालिका और स्थिरता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। दोनों प्रणालियाँ अलग-अलग राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों में सफलतापूर्वक लागू की जाती हैं और अपने-अपने देश के लिए अनुकूल होती हैं।


Question: 12 एकात्मक शासन प्रणाली का अर्थ परिभाषा और गुण और दोष  बताइए।

उत्तर:
एकात्मक शासन प्रणाली का अर्थ और परिभाषा

**अर्थ**: एकात्मक शासन प्रणाली (Unitary System) वह प्रणाली है जिसमें समस्त शक्ति और अधिकार केंद्रीय सरकार में निहित होते हैं और निचले प्रशासनिक इकाइयाँ केंद्रीय सरकार द्वारा सृजित और नियंत्रित होती हैं।

**परिभाषा**: एकात्मक शासन प्रणाली में, केंद्रीय सरकार ही सर्वोच्च होती है और स्थानीय या प्रांतीय सरकारें केंद्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र के तहत कार्य करती हैं, जिनके पास स्वयं का कोई स्वतंत्र संवैधानिक अधिकार नहीं होता।

 गुण

1. **केंद्रीयकरण**: नीतियों और कानूनों में एकरूपता होती है, जिससे प्रशासन सरल और प्रभावी होता है।
2. **सुरक्षित और स्थिर**: निर्णय लेने में तेजी और कुशलता होती है, जिससे स्थिरता बनी रहती है।
3. **संगठित प्रशासन**: केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में संगठित प्रशासन होता है, जिससे भ्रष्टाचार और अराजकता की संभावनाएं कम होती हैं।

 दोष

1. **स्थानीय स्वायत्तता की कमी**: स्थानीय सरकारों की स्वतंत्रता सीमित होती है, जिससे स्थानीय जरूरतों को पूरा करने में कठिनाई हो सकती है।
2. **केंद्रीय सरकार पर बोझ**: सारी शक्तियों का केंद्रीयकरण होने से केंद्रीय सरकार पर अत्यधिक बोझ पड़ता है।
3. **सहभागिता की कमी**: जनता की भागीदारी और प्रतिनिधित्व कम होता है, जिससे लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी हो सकती है।

Question: 13 संघात्मक शासन प्रणाली का अर्थ परिभाषा विशेषताएं गुण और दोष बताइए।

उत्तर:
 संघात्मक शासन प्रणाली का अर्थ और परिभाषा

**अर्थ**: संघात्मक शासन प्रणाली (Federal System) वह प्रणाली है जिसमें सत्ता और अधिकार केंद्रीय सरकार और स्थानीय (राज्य या प्रांतीय) सरकारों के बीच विभाजित होते हैं। 

**परिभाषा**: संघात्मक शासन प्रणाली में, केंद्रीय और राज्य सरकारें दोनों संविधान द्वारा निर्धारित शक्तियों का उपयोग करती हैं। दोनों सरकारों की संप्रभुता होती है और वे अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं।

 विशेषताएँ

1. **द्वैध शासन**: सत्ता का विभाजन केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच होता है, प्रत्येक अपने अधिकार क्षेत्रों में स्वतंत्र होती है।
2. **संविधान की सर्वोच्चता**: संघीय संविधान सर्वोच्च होता है और दोनों स्तर की सरकारें इसके अनुसार कार्य करती हैं।
3. **संविधान संशोधन की प्रक्रिया**: संविधान को संशोधित करने की प्रक्रिया कठिन होती है और इसके लिए केंद्रीय और राज्य सरकारों दोनों की सहमति आवश्यक होती है।
4. **अधिकारों का विभाजन**: अधिकारों और कर्तव्यों का स्पष्ट विभाजन होता है, जिससे शक्तियों का संतुलन बना रहता है।
5. **स्थानीय स्वायत्तता**: राज्य सरकारों को स्थानीय मुद्दों पर स्वतंत्रता और स्वायत्तता प्राप्त होती है।

 गुण

1. **स्थानीय प्रशासन में सुधार**: राज्य सरकारें स्थानीय आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुसार नीतियाँ और कानून बना सकती हैं।
2. **शक्ति का विकेंद्रीकरण**: शक्ति का विकेंद्रीकरण होता है, जिससे केंद्रीकृत सत्ता का दुरुपयोग कम होता है।
3. **नवाचार और प्रयोग**: विभिन्न राज्यों में अलग-अलग नीतियों और प्रयोगों से नवाचार को बढ़ावा मिलता है।
4. **जवाबदेही और पारदर्शिता**: स्थानीय सरकारें जनता के करीब होती हैं, जिससे उनकी जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ती है।

 दोष

1. **संसाधनों का असमान वितरण**: संघात्मक प्रणाली में विभिन्न राज्यों के बीच संसाधनों का असमान वितरण हो सकता है, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ सकती है।
2. **संघर्ष और विवाद**: केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों और शक्तियों को लेकर संघर्ष और विवाद हो सकते हैं।
3. **धीमी निर्णय प्रक्रिया**: संघात्मक प्रणाली में समन्वय और सहमति की आवश्यकता के कारण निर्णय लेने की प्रक्रिया धीमी हो सकती है।
4. **संविधान का जटिलता**: संघीय संविधान जटिल होता है और इसके प्रावधानों की व्याख्या में समस्याएँ आ सकती हैं।

 सारांश

संघात्मक शासन प्रणाली में शक्ति और अधिकारों का स्पष्ट विभाजन होता है, जो स्थानीय प्रशासन में सुधार और नवाचार को बढ़ावा देता है। हालांकि, यह प्रणाली संसाधनों के असमान वितरण और केंद्र-राज्य संघर्ष जैसी चुनौतियाँ भी प्रस्तुत करती है।

Question: 14 ब्रिटेन के संविधान की विशेषताएं और इसके प्रमुख स्रोतों का वर्णन कीजिए।

उत्तर :
ब्रिटेन का संविधान एक अनूठा और ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जो अन्य देशों के लिखित संविधानों से अलग है। इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएं और स्रोत निम्नलिखित हैं:

 विशेषताएं

1. **लिखित और अलिखित तत्व**: ब्रिटेन का संविधान एक लिखित दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि विभिन्न स्रोतों से प्राप्त कानूनों, परंपराओं और प्रथाओं का मिश्रण है।
2. **संसदीय संप्रभुता**: ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है और वह किसी भी कानून को बना, संशोधित या निरस्त कर सकती है। संसद के कानून न्यायालयों के अधीन नहीं होते।
3. **लचीलापन**: संविधान को बदलने के लिए किसी विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता नहीं होती। संसद साधारण विधायी प्रक्रिया के माध्यम से इसे बदल सकती है।
4. **परंपराओं का महत्व**: संवैधानिक परंपराएँ, जैसे कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति और कैबिनेट की संरचना, संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
5. **एकात्मक राज्य**: ब्रिटेन एक एकात्मक राज्य है, जहां केंद्रीय सरकार के पास सर्वोच्च सत्ता होती है और स्थानीय सरकारें केंद्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित होती हैं।
6. **न्यायिक समीक्षा का अभाव**: संसद के कानूनों की संवैधानिकता की न्यायिक समीक्षा नहीं होती, क्योंकि संसद को सर्वोच्च माना जाता है।

 प्रमुख स्रोत

1. **सांविधिक कानून (Statute Law)**: संसद द्वारा पारित कानून और अधिनियम, जैसे कि 1832 का सुधार अधिनियम और 1998 का मानवाधिकार अधिनियम, संवैधानिक स्रोतों का हिस्सा हैं।
2. **साधारण कानून (Common Law)**: न्यायालयों द्वारा दिए गए फैसले और न्यायिक सिद्धांत भी संविधान का हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए, न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत।
3. **सांविधानिक परंपराएँ (Constitutional Conventions)**: गैर-लिखित परंपराएँ जो राजनीतिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करती हैं। जैसे कि प्रधानमंत्री का संसद के निचले सदन का सदस्य होना।
4. **महत्वपूर्ण ग्रंथ और अधिकार-पत्र (Important Documents and Charters)**: ऐतिहासिक दस्तावेज जैसे कि 1215 का मैग्ना कार्टा, 1689 का अधिकार-पत्र (Bill of Rights), और 1701 का अधीनस्थता अधिनियम (Act of Settlement)।
5. **यूरोपीय संघ के कानून (EU Law)**: ब्रिटेन के यूरोपीय संघ का सदस्य रहते हुए लागू हुए कानून और संधियाँ, जो 2020 तक संवैधानिक स्रोतों का हिस्सा थीं।
6. **विदेशी न्यायालयों के फैसले**: कुछ मामलों में, ब्रिटेन के न्यायालय विदेशी न्यायालयों के फैसलों और सिद्धांतों का संदर्भ लेते हैं, जो संवैधानिक स्रोतों का हिस्सा बन सकते हैं।

सारांश

ब्रिटेन का संविधान एक जटिल और अद्वितीय दस्तावेज़ है जो विभिन्न स्रोतों और परंपराओं का सम्मिश्रण है। इसकी प्रमुख विशेषताओं में संसदीय संप्रभुता, लचीलापन, और परंपराओं का महत्व शामिल है। इसके प्रमुख स्रोतों में सांविधिक कानून, साधारण कानून, सांविधानिक परंपराएँ, महत्वपूर्ण ग्रंथ और अधिकार-पत्र, यूरोपीय संघ के कानून और विदेशी न्यायालयों के फैसले शामिल हैं।

Question: 15  ब्रिटिश न्यायपालिका की प्रमुख विशेषताएं बताइए। 

उत्तर: 
ब्रिटिश न्यायपालिका (British Judiciary) की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

 1. न्यायिक स्वतंत्रता

**अर्थ**: ब्रिटिश न्यायपालिका स्वतंत्र है, जिसका मतलब है कि न्यायाधीशों का काम करने में किसी भी प्रकार का बाहरी हस्तक्षेप नहीं होता।

**विशेषताएँ**:
- **न्यायाधीशों की नियुक्ति**: न्यायाधीशों की नियुक्ति मेरिट के आधार पर होती है, और वे केवल संसद द्वारा स्थापित प्रक्रिया के तहत हटाए जा सकते हैं।
- **वेतन और सेवा शर्तें**: न्यायाधीशों के वेतन और सेवा शर्तों को संसद द्वारा निर्धारित किया जाता है, जिससे कार्यपालिका या विधायिका का उन पर नियंत्रण नहीं होता।

 2. साधारण कानून प्रणाली

**अर्थ**: ब्रिटिश न्यायपालिका साधारण कानून (Common Law) प्रणाली का पालन करती है, जिसमें कानून का विकास न्यायिक निर्णयों और नजीरों (precedents) के माध्यम से होता है।

**विशेषताएँ**:
- **नजीर (Precedent)**: पिछले न्यायिक निर्णय भविष्य के मामलों में मार्गदर्शक होते हैं।
- **न्यायिक समीक्षा (Judicial Review)**: न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के निर्णयों की समीक्षा कर सकती है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे कानून के अनुसार हैं।

 3. न्यायिक समीक्षा

**अर्थ**: न्यायिक समीक्षा वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से न्यायालय सरकारी निर्णयों और कानूनों की वैधता की जांच करता है।

**विशेषताएँ**:
- **कानून की वैधता**: न्यायालय यह जांचता है कि क्या कानून और सरकारी निर्णय संविधान के अनुरूप हैं।
- **निष्पक्षता**: न्यायालय कार्यपालिका और विधायिका के कार्यों की निष्पक्षता से समीक्षा करता है।

 4. द्विस्तरीय न्याय प्रणाली

**अर्थ**: ब्रिटेन में द्विस्तरीय न्याय प्रणाली है जिसमें उच्च और निम्न न्यायालय शामिल हैं।

**विशेषताएँ**:
- **निम्न न्यायालय**: इसमें मजिस्ट्रेट कोर्ट और काउंटी कोर्ट शामिल हैं जो छोटे-मोटे अपराधों और दीवानी मामलों को सुनते हैं।
- **उच्च न्यायालय**: इसमें हाई कोर्ट, कोर्ट ऑफ अपील और सुप्रीम कोर्ट शामिल हैं, जो गंभीर मामलों और अपीलों की सुनवाई करते हैं।

5. न्यायाधीशों की निष्पक्षता

**अर्थ**: ब्रिटिश न्यायपालिका में निष्पक्षता का उच्च स्तर है, और न्यायाधीशों को बिना किसी पूर्वाग्रह या दबाव के न्यायिक निर्णय लेने की उम्मीद की जाती है।

**विशेषताएँ**:
- **निष्पक्ष निर्णय**: न्यायाधीश केवल कानून और साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लेते हैं।
- **नैतिक मानदंड**: न्यायाधीशों के लिए नैतिकता और पेशेवर आचरण के सख्त मानदंड होते हैं।

 6. न्यायिक प्रशिक्षण

**अर्थ**: न्यायाधीश बनने से पहले और उसके बाद भी न्यायिक प्रशिक्षण की प्रक्रिया होती है।

**विशेषताएँ**:
- **प्रारंभिक प्रशिक्षण**: न्यायाधीश बनने से पहले संभावित न्यायाधीशों को व्यापक प्रशिक्षण दिया जाता है।
- **निरंतर शिक्षा**: न्यायाधीशों के लिए निरंतर पेशेवर विकास कार्यक्रम होते हैं।

 सारांश

ब्रिटिश न्यायपालिका की प्रमुख विशेषताओं में न्यायिक स्वतंत्रता, साधारण कानून प्रणाली, न्यायिक समीक्षा, द्विस्तरीय न्याय प्रणाली, न्यायाधीशों की निष्पक्षता और न्यायिक प्रशिक्षण शामिल हैं। इन विशेषताओं का समन्वय एक मजबूत, निष्पक्ष और प्रभावी न्यायिक प्रणाली को सुनिश्चित करता है, जो कानून के शासन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

Question: 16 अमेरिका के सविधान की संशोधन प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए।

उत्तर:
अमेरिकी संविधान में बदलाव या संशोधन करना एक प्रक्रिया है जिसे दो मुख्य चरणों में पूरा किया जाता है: प्रस्ताव (Proposal) और पुष्टि (Ratification)।

संशोधन प्रक्रिया

 1. प्रस्ताव (Proposal)

संविधान में संशोधन प्रस्तावित करने के दो तरीके हैं:

1. **कांग्रेस द्वारा**:
   - दोनों सदनों (प्रतिनिधि सभा और सीनेट) में दो-तिहाई (2/3) बहुमत से संशोधन का प्रस्ताव पारित करना।

2. **राज्यों के अनुरोध पर राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा**:
   - यदि दो-तिहाई (2/3) राज्य विधानसभाएँ (वर्तमान में 34 राज्य) अनुरोध करती हैं, तो एक राष्ट्रीय संवैधानिक सम्मेलन बुलाया जाता है, जिसमें संशोधन प्रस्तावित किए जा सकते हैं।
   
अब तक, सभी प्रस्तावित संशोधन कांग्रेस द्वारा ही प्रस्तावित किए गए हैं और राष्ट्रीय सम्मेलन का तरीका कभी इस्तेमाल नहीं हुआ है।

 2. पुष्टि (Ratification)

प्रस्तावित संशोधन की पुष्टि के दो तरीके हैं:

1. **राज्य विधानसभाओं द्वारा**:
   - तीन-चौथाई (3/4) राज्य विधानसभाओं (वर्तमान में 38 राज्य) द्वारा संशोधन की पुष्टि करना।

2. **विशेष राज्य सम्मेलनों द्वारा**:
   - तीन-चौथाई (3/4) राज्यों में विशेष रूप से बुलाए गए सम्मेलनों द्वारा संशोधन की पुष्टि करना।

कांग्रेस यह तय करती है कि पुष्टि किस तरीके से की जाएगी। अब तक, अधिकांश संशोधनों की पुष्टि राज्य विधानसभाओं द्वारा की गई है।

 सरल सारांश

1. **प्रस्तावना (Proposal)**:
   - **कांग्रेस**: दोनों सदनों (प्रतिनिधि सभा और सीनेट) में दो-तिहाई बहुमत से।
   - **राज्य सम्मेलन**: दो-तिहाई राज्य विधानसभाओं के अनुरोध पर।

2. **पुष्टि (Ratification)**:
   - **राज्य विधानसभाएँ**: तीन-चौथाई राज्य विधानसभाओं द्वारा।
   - **विशेष राज्य सम्मेलन**: तीन-चौथाई राज्यों के विशेष सम्मेलन द्वारा।

विशेषताएं और चुनौतियां

- **संतुलन**: यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि कोई भी संशोधन व्यापक सहमति के बिना पास न हो।
- **कठिनाई**: संशोधन की प्रक्रिया जटिल है और इसे पास करना मुश्किल होता है, जिससे केवल महत्वपूर्ण और व्यापक रूप से समर्थित संशोधन ही पास हो पाते हैं।

इस तरह, अमेरिकी संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को सरल शब्दों में समझा जा सकता है।

Question: 17 अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनावी प्रक्रिया और उसकी शक्तियों की विवेचना कीजिए। 

उत्तर: 
 अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनाव प्रक्रिया

अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें विभिन्न चरण होते हैं:

 1. **प्रारंभिक चुनाव (Primary Elections) और कॉकस (Caucuses)**

- **प्रारंभिक चुनाव**: प्रत्येक राज्य में राजनीतिक पार्टियाँ अपने उम्मीदवारों का चयन करने के लिए प्रारंभिक चुनाव आयोजित करती हैं। ये चुनाव आमतौर पर जनवरी से जून तक होते हैं।
- **कॉकस**: कुछ राज्यों में, मतदान के बजाय कॉकस होते हैं, जहाँ पार्टी समर्थक बैठकें आयोजित करते हैं और अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं।

 2. **पार्टी कन्वेंशन (Party Conventions)**

- **राष्ट्रीय पार्टी कन्वेंशन**: प्रत्येक पार्टी (जैसे डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन) राष्ट्रीय कन्वेंशन आयोजित करती है, जिसमें प्रत्येक राज्य से चुने गए प्रतिनिधि पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार का चयन करते हैं।

 3. **जनरल इलेक्शन (General Election)**

- **निर्वाचन दिवस**: आम चुनाव नवंबर के पहले मंगलवार को होता है। नागरिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए वोट डालते हैं।
- **इलेक्टोरल कॉलेज (Electoral College)**: नागरिकों के वोटों के आधार पर, प्रत्येक राज्य को एक निश्चित संख्या में इलेक्टोरल वोट मिलते हैं। कुल 538 इलेक्टोरल वोट होते हैं, और राष्ट्रपति बनने के लिए एक उम्मीदवार को 270 इलेक्टोरल वोट प्राप्त करने होते हैं।

 4. **इलेक्टोरल वोट (Electoral Votes)**

- **इलेक्टोरल वोट कास्टिंग**: नवंबर के चुनाव के बाद, प्रत्येक राज्य के इलेक्टर्स अपने वोट कास्ट करते हैं। ये वोट दिसंबर में इलेक्टोरल कॉलेज की बैठक में किए जाते हैं।

 5. **वेतन (Inauguration)**

- **राष्ट्रपति की शपथ**: राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण 20 जनवरी को होता है, जिसमें नया राष्ट्रपति औपचारिक रूप से पद की शपथ लेता है।

अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्तियाँ

अमेरिकी राष्ट्रपति की शक्तियाँ संविधान द्वारा निर्धारित की गई हैं और निम्नलिखित प्रमुख क्षेत्रों में बंटी हैं:

 1. **कार्यपालिका शक्तियाँ**

- **सर्वोच्च कमांडर**: राष्ट्रपति अमेरिकी सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर होता है।
- **कार्यकारी आदेश**: राष्ट्रपति कार्यकारी आदेश जारी कर सकते हैं, जो प्रशासनिक नीतियों को लागू करने में मदद करते हैं।

 2. **विधायिका के साथ संबंध**

- **विधेयक पर हस्ताक्षर**: राष्ट्रपति द्वारा विधेयक पर हस्ताक्षर करने से वह कानून बन जाता है। राष्ट्रपति को विधेयक पर हस्ताक्षर करने या उसे वीटो (नकारने) का अधिकार होता है।
- **कांग्रेस को संबोधित करना**: राष्ट्रपति वार्षिक स्टेट ऑफ द यूनियन भाषण के माध्यम से कांग्रेस को संबोधित करते हैं और नीतिगत प्राथमिकताओं की जानकारी देते हैं।

 3. **न्यायिक शक्तियाँ**

- **न्यायिक नियुक्तियाँ**: राष्ट्रपति संघीय न्यायाधीशों और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकते हैं।
- **पार्डन और रेशिएट**: राष्ट्रपति अपराधों के लिए आम माफी (पार्डन) या दंड में कमी (कमिशन) कर सकते हैं।

 4. **विदेशी नीतियाँ**

- **संधियाँ और समझौते**: राष्ट्रपति विदेशी देशों के साथ संधियाँ और समझौतों पर हस्ताक्षर कर सकते हैं (हालांकि इनकी पुष्टि के लिए सीनेट की मंजूरी आवश्यक होती है)।
- **विदेशी मामलों में निर्णय**: राष्ट्रपति विदेश नीति को आकार देने और विदेशी संबंधों को प्रबंधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

 5. **अधिकारी नियुक्तियाँ**

- **मंत्रियों और अन्य उच्च अधिकारियों की नियुक्ति**: राष्ट्रपति प्रमुख संघीय पदों पर नियुक्तियाँ कर सकते हैं, जैसे कि कैबिनेट सदस्य और संघीय एजेंसियों के प्रमुख।

सारांश

अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव प्रक्रिया के विभिन्न चरणों से गुजरता है, जिसमें प्रारंभिक चुनाव, पार्टी कन्वेंशन, आम चुनाव, इलेक्टोरल कॉलेज की प्रक्रिया, और शपथ ग्रहण शामिल हैं। राष्ट्रपति की शक्तियाँ कार्यपालिका, विधायिका, न्यायिक, विदेशी नीतियाँ, और उच्च अधिकारियों की नियुक्तियों के क्षेत्रों में फैली हुई हैं, जो उन्हें व्यापक अधिकार और जिम्मेदारियाँ प्रदान करती हैं।

Question: 18 स्विट्जरलैंड के संविधान की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए। 

उत्तर:

स्विट्जरलैंड का संविधान कई अद्वितीय विशेषताओं के साथ एक विशेष प्रकार का संघीय ढाँचा प्रस्तुत करता है। यहाँ इसके प्रमुख विशेषताओं का वर्णन किया गया है:

 1. **संघात्मक ढाँचा (Federal Structure)**

- **संघीय प्रणाली**: स्विट्जरलैंड एक संघीय राज्य है जिसमें 26 Cantons (राज्य) होते हैं। ये Cantons अपनी आंतरिक स्वायत्तता और प्रशासनिक स्वतंत्रता रखते हैं।
- **संविधान का अधिकार क्षेत्र**: संविधान द्वारा संघीय और कैन्टन सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है।

 2. **सभी स्तरों पर लोकतंत्र (Direct Democracy)**

- **जनमत संग्रह (Referendums)**: स्विट्जरलैंड में नागरिकों को प्रस्तावित कानूनों पर मतदान करने का अधिकार है। यदि किसी कानून को लेकर जनमत संग्रह आयोजित होता है, तो नागरिक सीधे मतदान करके उस कानून को स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं।
- **सिद्धांतों की स्वीकृति**: किसी भी संवैधानिक संशोधन या महत्वपूर्ण कानून को लागू करने के लिए, स्विस नागरिकों की स्वीकृति आवश्यक होती है।

 3. **प्रारूपित संवैधानिक संशोधन (Flexible Constitution)**

- **संविधान में संशोधन**: संविधान को बदलने के लिए नागरिकों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। हालांकि, यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत लचीली है, जो संविधान को समयानुसार अद्यतित करने में सहायक होती है।

 4. **केंद्र और कैन्टन के बीच शक्ति का संतुलन**

- **संघीय सरकार**: संघीय सरकार के पास बाहरी संबंध, राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य केंद्रीय मुद्दों की जिम्मेदारी होती है।
- **कैन्टन की स्वायत्तता**: कैन्टन अपने स्थानीय मुद्दों, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर नियंत्रण रखते हैं और स्थानीय कानून बना सकते हैं।

5. **कानूनी और न्यायिक प्रणाली**

- **संविधान की सर्वोच्चता**: स्विस संविधान सर्वोच्च होता है, और सभी संघीय और कैन्टन कानून संविधान के अनुरूप होना चाहिए।
- **स्वतंत्र न्यायपालिका**: न्यायपालिका स्वतंत्र है और संवैधानिक मामलों की समीक्षा कर सकती है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी कानून संविधान के अनुरूप हैं।

 6. **बहुदलीय प्रणाली (Multi-Party System)**

- **पार्टी सहभागिता**: स्विट्जरलैंड में एक बहुदलीय प्रणाली है, जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों को प्रतिनिधित्व प्राप्त है। इस प्रणाली में विभिन्न दलों के बीच सत्ता-साझाकरण होता है।
- **स्विस फेडरल काउंसिल**: स्विस संघीय काउंसिल (Federal Council) में विभिन्न राजनीतिक दलों के सदस्य होते हैं, जो एक समान सत्तावान रूप से कार्य करते हैं।

7. **गैर-राजनीतिक राष्ट्रपति (Federal Council President)**

- **रोटेटिंग प्रेसीडेंसी**: स्विट्जरलैंड में राष्ट्रपति की स्थिति गैर-राजनीतिक होती है और प्रत्येक वर्ष संघीय काउंसिल (Federal Council) के सदस्य में से एक को राष्ट्रपति के रूप में चुना जाता है। राष्ट्रपति का पद समारोहिक होता है और वास्तविक कार्यकारी शक्तियाँ संघीय काउंसिल में बंटी होती हैं।

 सारांश

स्विट्जरलैंड का संविधान संघात्मक, लोकतांत्रिक और लचीला है। इसमें संघीय और कैन्टन सरकारों के बीच शक्ति का संतुलन, सीधी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ, और एक स्वतंत्र न्यायपालिका शामिल है। यह प्रणाली स्विस नागरिकों को न केवल कानूनों पर सीधा प्रभाव डालने का अवसर प्रदान करती है, बल्कि सुनिश्चित करती है कि संविधान सभी कानूनों और नीतियों के लिए सर्वोच्च मार्गदर्शक 

Question: 19 रूस में डूमा का गठन कैसे होता है, उसकी शक्तियों की व्याख्या कीजिए। 

उत्तर: 
रूस में **ड्यूमा** (Duma) रूस की संघीय विधानसभा का निचला सदन है। इसका पूरा नाम **"राज्य ड्यूमा"** (State Duma) है। यहाँ ड्यूमा के गठन और शक्तियों की सरल भाषा में व्याख्या की गई है:

 ड्यूमा का गठन

1. **सदस्यों की संख्या**:
   - ड्यूमा में कुल 450 सदस्य होते हैं।

2. **चुनाव प्रक्रिया**:
   - **चुनाव प्रणाली**: ड्यूमा के सदस्य हर पांच साल में सीधे चुनावों द्वारा चुने जाते हैं।
   - **सदस्यता प्रणाली**: चुनाव एक मिश्रित प्रणाली पर आधारित है:
     - **निर्वाचन क्षेत्र**: 225 सदस्य एकल-आयोग निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाते हैं।
     - **पार्टी सूचियाँ**: अन्य 225 सदस्य पार्टी सूचियों के आधार पर चुने जाते हैं, जहां पार्टी की कुल प्राप्त वोटों के अनुसार सीटें वितरित की जाती हैं।

ड्यूमा की शक्तियाँ

1. **विधायिका की शक्तियाँ**:
   - **कानून बनाना**: ड्यूमा नए कानून बना सकती है और मौजूदा कानूनों में संशोधन कर सकती है।
   - **बजट अनुमोदन**: संघीय बजट को प्रस्तुत और अनुमोदित करती है।

2. **कार्यकारी और राष्ट्रपति पर निगरानी**:
   - **नियुक्तियाँ**: राष्ट्रपति द्वारा की गई प्रमुख नियुक्तियों (जैसे प्रधानमंत्री) को अनुमोदित करती है।
   - **निगरानी**: कार्यकारी शाखा की गतिविधियों पर निगरानी करती है और मंत्रालयों की कार्यप्रणाली पर सवाल पूछ सकती है।

3. **संविधान और महत्वपूर्ण निर्णय**:
   - **संविधान संशोधन**: संविधान में संशोधन के प्रस्तावों को पेश और अनुमोदित कर सकती है।
   - **संविधानिक प्रतिनिधित्व**: विदेशी संबंधों और प्रमुख कानूनी मुद्दों पर निर्णय लेती है।

4. **अन्य कार्य**:
   - **सुनवाई और जांच**: विशेष समितियों के माध्यम से सरकारी कार्यों की जांच और सुनवाई कर सकती है।
   - **संसदीय इन्क्वायरी**: सरकारी कार्यों की पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए विशेष जांच कर सकती है।

सारांश

ड्यूमा रूस का निचला सदन है, जिसमें 450 सदस्य होते हैं। इसके सदस्य सीधे चुनावों के माध्यम से चुने जाते हैं। ड्यूमा का मुख्य कार्य कानून बनाना, बजट अनुमोदन करना, और कार्यकारी और राष्ट्रपति पर निगरानी रखना होता है। यह एक महत्वपूर्ण विधायी संस्था है जो रूस की राजनीति और कानून निर्माण में अहम भूमिका निभाती है।





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